सत्यनिष्ठ होना ही सबसे बड़ी साधना है ---
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राग-द्वेष, लोभ व अहंकार से मुक्ति मिल जाए और साथ-साथ भगवान के प्रति परमप्रेम हृदय में हो तो संसार में रहते हुए भी सत्यनिष्ठ होकर धर्माचरण कर सकते हैं। आदर्श रूप में यह कहना तो बड़ा सरल है पर व्यवहार रूप में करना बड़ा कठिन। सत्यनिष्ठ होना ही सबसे बड़ी साधना है। इसका प्रयास करते-करते मेरे अनेक जन्म व्यतीत हो गए हैं, लेकिन लगता है अभी भी सफलता नहीं मिली है। पूर्वजन्म का कुछ कुछ आभास यानि स्मृतियाँ हैं। इस जन्म का भी पता है, जो मरुभूमि में गिरी हुई जल की एक बूँद की तरह ही था। चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाये।
आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास
बाना पहिना सिंह का, चले भेड़ की चाल
लेकिन यह चलने वाली बात नहीं है। इस तरह भेड़ की चाल सदा नहीं चल सकते। अपनी क्षमता पर भी संदेह ही नहीं भरोसा भी टूट गया है। स्वयं में कोई क्षमता या गुण नहीं है। एकमात्र कृपा है -- भगवान को पाने की अभीप्सा, यानि एक अतृप्त गहन प्यास और तड़प। इसके अतिरिक्त और कुछ भी संपत्ति मेरे पास में नहीं है। यह अभीप्सा ही मेरी एकमात्र संपत्ति है, जिसके साथ-साथ कुछ प्रेम भी है जो मेरा स्वभाव है। भगवान का यह कृपा रूपी प्रसाद ही मुझे भगवान से मिला देगा। और कुछ भी नहीं चाहिए, यही पर्याप्त है।
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करें तो क्या करें? गीता में दिये भगवान के चरम उपदेश और गीता के ही अंतिम श्लोकों के सिवाय इस समय और कुछ भी याद नहीं आ रहा है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
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जहां तक मेरी कल्पना जाती है, इस सृष्टि में भगवान वासुदेव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। मेरा भी कोई अस्तित्व नहीं है। जो कुछ भी है, वह वे स्वयं हैं। वे स्वयं ही इस देह से सब क्रियाएँ कर रहे हैं। वे स्वयं ही स्वयं का अवलोकन और अनुभव कर रहे हैं। उनकी जय हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ अक्तूबर २०२१
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