Friday 8 October 2021

जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही हो जाता है ---

 

जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही हो जाता है ---
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श्रद्धा तीन प्रकार की होती है -- सात्विक, राजसिक और तामसिक। जैसे संस्कार हमें अपने माँ-बाप, परिवार और समाज द्वारा मिलते हैं, वैसे ही हम बन जाते हैं। हम अपने ऊपर डाले हुये संस्कारों के उत्पाद हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥१७:३॥"
अर्थात् -- हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव, संस्कार) के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा ही उसका स्वरूप होता है॥"
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शुक्ल यजुर्वेद में कहा है --
"व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्‌।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥"
अर्थात्‌ मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता व्रत से प्राप्त होती है, जिसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा से दक्षिणा यानी जो कुछ किया जा रहा है, उसमें सफलता मिलती है। इससे श्रद्धा जागती है और श्रद्धा से सत्य की यानी जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है, जो उसका अंतिम निष्कर्ष है।
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आचरण की शुद्धता को किसी भी कठिन परिस्थिति में न छोड़ना, और निष्ठापूर्वक उसका पालन करना "व्रत" कहलाता है। वस्तुतः विशेष संकल्प के साथ लक्ष्य सिद्धि के लिए किए जाने वाले कार्य का नाम "व्रत" है। व्रत का अर्थ - भूखा मरना नहीं है। एक संस्कार को बार बार दृढ़ करना और उस संस्कार से भिन्न कोई विषय आए उसे हटाना एक व्रत है।
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जिस परमात्मा का हमने वरण कर लिया है उसके अतिरिक्त हृदय में अन्य कोई भी भाव न हो, स्वयं के पृथक अस्तित्व का भी, तभी हम श्रद्धावान हैं। बार बार निरंतर इसका अभ्यास करना पड़ता है। जो हमारे हृदय में भाव हैं वह ही हमारी श्रद्धा है, और जो हमारी श्रद्धा है, वह ही हम हैं।
सभी निजात्माओं को नमन !! हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२९ सितंबर २०२१

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