जो हम स्वयं हैं, वही हम दूसरों को दे सकते हैं (कुछ भी कम या अधिक नहीं) ---
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सर्वाधिक महत्व इस बात का है कि हम स्वयं अपनी दृष्टि में क्या हैं। जो हम स्वयं हैं, वही हम दूसरों को दे सकते हैं, कुछ भी कम या अधिक नहीं। भगवान की दृष्टि में भी हम वही हैं जो स्वयं की दृष्टि में हैं। अतः निरंतर अपने शिव-स्वरूप में रहने की उपासना करो। यही हमारा स्वधर्म है। जो हमारे पास नहीं है वह हम दूसरों को नहीं दे सकते। हम विश्व में शांति नहीं ला सकते जब तक हम स्वयं अशांत हैं। हम विश्व को प्रेम नहीं दे सकते जब तक हम स्वयं प्रेममय नहीं हैं।
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इस विषय पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय के ४५वें श्लोक में पाँच आदेश/उपदेश एक साथ दिये हैं। वे हमें -- "निस्त्रैगुण्य", "निर्द्वन्द्व", "नित्यसत्त्वस्थ", "निर्योगक्षेम", व "आत्मवान्" बनने का आदेश देते हैं। ये सभी एक -दूसरे के पूरक हैं। कैसे बनें ? इस पर विचार स्वयं करें। बनना तो पड़ेगा ही, इस जन्म में नहीं तो अनेक जन्मों के पश्चात।
आप सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ व नमन !!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ नवम्बर २०२१
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