Thursday 15 March 2018

अहंभाव से मुक्त ब्रह्मज्ञ की महिमा ......

अहंभाव से मुक्त ब्रह्मज्ञ की महिमा ......
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को कहते हैं ....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते" ||१८:१७||
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न (पाप से) बँधता है|
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ऐसा ही उपदेश ऋषि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक को दिया था, जिसकी दक्षिणा स्वरुप राजा जनक ने अपना सारा राज्य और यहाँ तक कि स्वयं को भी अपने गुरु ऋषि याज्ञवल्क्य के श्रीचरणों में अर्पित कर दिया था|
श्रुति भगवती कहती हैं .....


(बृहदारण्यक उपनिषद, अध्याय ४, ब्राह्मण ४, श्लोक संख्या २३) .... "तदेतदृचाभ्युक्तम् | एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न वर्धते कर्मणा नो कनीयान् | तस्यैव स्यात्पदवित्तं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेनेति | तस्मादेवंविच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति नैनं पाप्मा तरति सर्वं पाप्मानं तरति नैनं पाप्मा तपति सर्वं पाप्मानं तपति विपापो विरजोऽविचिकित्सो ब्राह्मणो भवत्येष ब्रह्मलोकः सम्राडेनं प्रापितोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः सोऽहं भगवते विदेहान्ददामि मां चापि सह दास्यायेति || २३ ||

भावार्थ :-- ब्रह्मज्ञ उस ब्रह्म को जानने के पश्चात किसी भी पाप से लिप्त नहीं होता है| वह शान्त, तपस्वी, विरक्त, सहिष्णु और एकाग्र चित्त होकर आत्मा में ही परमात्मा को देखता है| सब को आत्मवत् देखता है| उस को कोई पाप नहीं छू सकता| वह सब पापों से परे तर जाता है| वह पाप रहित निर्मल संशय रहित ब्राह्मण बन जाता है|
यह ब्रह्मलोक है, सम्राट् ! इस तक आप पहुंच गये हैं|
इस उपदेश को याज्ञवल्क्य से ग्रहण कर राजा जनक ने कहा कि मैं भगवान् के लिए आपको यह समस्त विदेह राज्य देता हूँ, और अपने को भी साथ में देता हूँ|
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यहाँ श्रुति भगवती के वाक्य का सार यह है कि .....
जो ब्रह्म को जान कर प्राप्त कर लेता है कर्म का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता| न उस पर अच्छे कर्म अपना प्रभाव डाल सकते हैं और न बुरे| उस की अवस्था निर्दोष बालक की जैसी हो जाती है| ब्रह्मज्ञ विद्वान् शान्तिमय अन्तर्मुख हो जाता है और अपने आत्मरूप में प्रविष्ट होकर परमात्मा के दर्शन करता है| ऐसा व्यक्ति संसार के समस्त प्राणियों को आत्मवत् ही देखा करता है| इस अवस्था में पहुँचकर आत्मा ब्रह्मलोक को प्राप्त करके जीवन मुक्त और शरीर छोड़ने पर मुक्त हो जाता है|
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इतना उदधृत करने के पश्चात और कुछ भी लिखने योग्य इस समय नहीं है| मनुष्य का प्रथम, अंतिम और एकमात्र ध्येय, सर्वप्रथम उस परब्रह्म परमात्मा को ही प्राप्त करना है| अन्य कुछ नहीं| अन्य सब बाद में स्वतः ही जुड़ जाता है| इसी सत्य को जीसस क्राइस्ट ने भी कहा है ... "But seek ye first the kingdom of God, and his righteousness; and all these things shall be added unto you." {Matthew 6:33 (KJV)}
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हे गुरुरूप ब्रह्म, मैं जो भी हूँ, जैसा भी हूँ, पूर्णरूपेण आप को समर्पित हूँ| यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार रूपी अंतःकरण और सारे पाप-पुण्य, बुरे-अच्छे सारे कर्मफल, और सम्पूर्ण अस्तित्व आपको समर्पित हैं| ॐ ॐ ॐ !!
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०१८
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पुनश्चः :-- तदाकार वृत्ति और नाद श्रवण का उपासना में बड़ा महत्त्व है. इनके बिना कोई भी आध्यात्मिक साधना सफल नहीं होती. ॐ ॐ ॐ !!

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