ध्यान साधना (भाग - 1) ---
(यह लेख सिर्फ उन उन्नत ध्यान साधकों के लिए है जिनके ह्रदय में प्रभु को समर्पित होने यानि उपलब्ध होने की गहन अभीप्सा और भक्ति है)
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संधिक्षणों में की गयी साधना "संध्या" कहलाती है|
जब साँस दोनों नासिकाओं से चल रही हो वह ध्यान का सर्वश्रेष्ठ समय है|
उन्नत साधक को नासिका से चल रही साँस के प्रति सजग ना होकर मेरुदंड में सुषुम्ना नाड़ी में चल रही प्राण ऊर्जा के प्रति सजग होना चाहिए| साँस जब अन्दर जाती है उस समय एक शीत लहर मूलाधार चक्र से उठकर आज्ञा चक्र तक जाती है| साँस बाहर आती है तब एक उष्ण लहर आज्ञा चक्र से मूलाधार तक पुनरागमन करती है| वही असली साँस हैं| नाक से ली जा रही साँस तो उसकी प्रतिक्रया मात्र है|
ध्यान से पूर्व सूर्य नमस्कार जैसे कुछ व्यायाम, तीन चार बार महामुद्रा और पंद्रह बीस बार अनुलोम-विलोम प्राणायाम आदि कर लेने चाहियें इससे पञ्च प्राणों में सामंजस्य भी रहेगा और साँस दोनों नासिकाओं से भी चलती रहेगी|
ध्यान की विधी .........
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कम्बल के ऊनी आसन पर एक रेशमी वस्त्र बिछा कर स्थिर होकर सुख से बैठिये| मुख पूर्व या उत्तर दिशा में हो, कमर सीधी हो| दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर रहे| आवश्यकता हो तो नितम्बों के नीचे एक पतली गद्दी रख लें ताकि कमर सीधी रहे|
अपनी आँखें बंद करें और अपने ह्रदय में उस परम प्रेम को जागृत करे जो अधिक से अधिक आप किसी के लिए भी कर सकते हो| उस प्रेम को आप अपनी देह के कण कण में अनुभूत करें| अब उस प्रेम की अनुभूति का विस्तार करते हुए उसमें अपने परिवार, मित्रगण, और सभी को सम्मिलित कर लें| धीरे धीरे अपने नगर, सम्पूर्ण भारतवर्ष, पूरी पृथ्वी, समस्त सृष्टि और सम्पूर्ण ब्रह्मांड को उस प्रेम के वृत्त में सम्मिलित कर लें| सारी आकाश गंगाएँ और जो कुछ भी सृष्ट और असृष्ट है, सम्पूर्ण अस्तित्व को उस प्रेम में सम्मिलित कर लें जिसके बाहर कुछ भी नहीं है|
सम्पूर्ण अस्तित्व उस प्रेम के घेरे में तैर रहा है| उससे बाहर कुछ भी नहीं है|
यह सर्वव्यापी प्रभु का प्रेम है जिसका ध्यान करें| अपने आप को, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को उस प्रेम में अर्पित कर दें| आप यह देह नहीं, बल्कि वह प्रेम हैं| बीच बीच में कभी कभी आँख खोलकर अपनी देह को देख लो और यह भाव करें कि आप यह देह नहीं बल्कि वह सर्व व्यापी प्रेम हैं| मन इधर उधर भागे तो बलात उसे बापस ले आएँ| अपने आप को उस प्रभुप्रेम में समर्पित कर दें|
जो भी प्रकाश दिखे उसे दिखने दो, जो भी ध्वनी सुने उसे सुनने दो| दृष्टी भूमध्य में स्थिर रहे और चेतना सर्वव्यापी प्रभु प्रेम में स्थिर रहे| जब साँस स्वाभाविक रूप से अन्दर जाए तो मानसिक रूप से जप करो ... "सो.....", बाहर आये तो .... "हं......" | इसका अर्थ है --- "मैं वह हूँ"|
"हं..." "सः..." या "हौं.." "सः..."भी जप सकते हैं, अर्थ और भाव एक ही हैं|
साँस स्वतः जितनी भी देर रुक जाये रुक जाने दो, चलनी प्रारंभ हो जाए तो हो चलने दो|
यह देह तो एक उपकरण मात्र है, आप तो हैं ही नहीं, साँस लेना और छोड़ना तो स्वयं भगवान ही कर रहे हैं, आप नहीं| इसी को अजपा-जप कहते हैं|
भगवान श्रीकृष्ण कि बंसी की ध्वनी प्रणव यानि ओंकार के रूप में अनाहत नाद की ध्वनी सुननी आरम्भ हो जाए तो साथ साथ उसे भी सुनते रहो| चैतन्य में ॐ ... का जाप भी करते रहो|
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि इतने काम एक साथ कैसे करें?
वैसे ही करें जैसे साइकिल चलाते समय पैडल भी चलाते है, हैंडल भी पकड़ते हैं, ब्रेक पर अंगुलियाँ भी रखते हैं, सामने भी देखते हैं और याद भी रखते हैं कि कहाँ जाना है, आदि आदि|
यह सर्वव्यापक प्रेम ही कृष्ण चैतन्य है| उनकी बंसी की ध्वनि ही समस्त सृष्टि का निर्माण, पालन-पोषण और संहार कर रही है| उनके प्रेम की जिस शक्ति ने पूरी सृष्टि को धारण कर रखा है वे श्रीराधा जी हैं| सारी सृष्टि उनका एक संकल्प मात्र है| समस्त अस्तित्व उनका ही है, वे ही वे हैं, हम और आप नहीं|
ह्रदय के प्रेम से आरम्भ करते है और सर्वव्यापी अनंत प्रेम रूपी कृष्ण चैतन्य में स्थित रहते है| वही हमारा अस्तित्व है| उसका ध्यान जब भी जितनी भी देर तक नियमित रूप से कर सकें करें| उसका इतना चिंतन करें कि आपका चिंतन उनको हो जाए|
वे ही विष्णु हैं, वे ही नारायण हैं और वे ही परम शिव हैं|
ध्यान के पश्चात तुरंत उठें नहीं, खूब देर तक उनके आनंद की अनुभूति करें| हर समय उनकी स्मृति रखें| उनका त्रिभंग मुरारी विग्रह सदा भ्रूमध्य में (यानि कूटस्थ में) रहे|
सब का कल्याण हो|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय|
ॐ ॐ ॐ ||
=सावशेष =
(अगला भाग कुछ दिनों के पश्चात प्रस्तुत करूंगा)
कृपाशंकर
(यह लेख सिर्फ उन उन्नत ध्यान साधकों के लिए है जिनके ह्रदय में प्रभु को समर्पित होने यानि उपलब्ध होने की गहन अभीप्सा और भक्ति है)
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संधिक्षणों में की गयी साधना "संध्या" कहलाती है|
जब साँस दोनों नासिकाओं से चल रही हो वह ध्यान का सर्वश्रेष्ठ समय है|
उन्नत साधक को नासिका से चल रही साँस के प्रति सजग ना होकर मेरुदंड में सुषुम्ना नाड़ी में चल रही प्राण ऊर्जा के प्रति सजग होना चाहिए| साँस जब अन्दर जाती है उस समय एक शीत लहर मूलाधार चक्र से उठकर आज्ञा चक्र तक जाती है| साँस बाहर आती है तब एक उष्ण लहर आज्ञा चक्र से मूलाधार तक पुनरागमन करती है| वही असली साँस हैं| नाक से ली जा रही साँस तो उसकी प्रतिक्रया मात्र है|
ध्यान से पूर्व सूर्य नमस्कार जैसे कुछ व्यायाम, तीन चार बार महामुद्रा और पंद्रह बीस बार अनुलोम-विलोम प्राणायाम आदि कर लेने चाहियें इससे पञ्च प्राणों में सामंजस्य भी रहेगा और साँस दोनों नासिकाओं से भी चलती रहेगी|
ध्यान की विधी .........
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कम्बल के ऊनी आसन पर एक रेशमी वस्त्र बिछा कर स्थिर होकर सुख से बैठिये| मुख पूर्व या उत्तर दिशा में हो, कमर सीधी हो| दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर रहे| आवश्यकता हो तो नितम्बों के नीचे एक पतली गद्दी रख लें ताकि कमर सीधी रहे|
अपनी आँखें बंद करें और अपने ह्रदय में उस परम प्रेम को जागृत करे जो अधिक से अधिक आप किसी के लिए भी कर सकते हो| उस प्रेम को आप अपनी देह के कण कण में अनुभूत करें| अब उस प्रेम की अनुभूति का विस्तार करते हुए उसमें अपने परिवार, मित्रगण, और सभी को सम्मिलित कर लें| धीरे धीरे अपने नगर, सम्पूर्ण भारतवर्ष, पूरी पृथ्वी, समस्त सृष्टि और सम्पूर्ण ब्रह्मांड को उस प्रेम के वृत्त में सम्मिलित कर लें| सारी आकाश गंगाएँ और जो कुछ भी सृष्ट और असृष्ट है, सम्पूर्ण अस्तित्व को उस प्रेम में सम्मिलित कर लें जिसके बाहर कुछ भी नहीं है|
सम्पूर्ण अस्तित्व उस प्रेम के घेरे में तैर रहा है| उससे बाहर कुछ भी नहीं है|
यह सर्वव्यापी प्रभु का प्रेम है जिसका ध्यान करें| अपने आप को, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को उस प्रेम में अर्पित कर दें| आप यह देह नहीं, बल्कि वह प्रेम हैं| बीच बीच में कभी कभी आँख खोलकर अपनी देह को देख लो और यह भाव करें कि आप यह देह नहीं बल्कि वह सर्व व्यापी प्रेम हैं| मन इधर उधर भागे तो बलात उसे बापस ले आएँ| अपने आप को उस प्रभुप्रेम में समर्पित कर दें|
जो भी प्रकाश दिखे उसे दिखने दो, जो भी ध्वनी सुने उसे सुनने दो| दृष्टी भूमध्य में स्थिर रहे और चेतना सर्वव्यापी प्रभु प्रेम में स्थिर रहे| जब साँस स्वाभाविक रूप से अन्दर जाए तो मानसिक रूप से जप करो ... "सो.....", बाहर आये तो .... "हं......" | इसका अर्थ है --- "मैं वह हूँ"|
"हं..." "सः..." या "हौं.." "सः..."भी जप सकते हैं, अर्थ और भाव एक ही हैं|
साँस स्वतः जितनी भी देर रुक जाये रुक जाने दो, चलनी प्रारंभ हो जाए तो हो चलने दो|
यह देह तो एक उपकरण मात्र है, आप तो हैं ही नहीं, साँस लेना और छोड़ना तो स्वयं भगवान ही कर रहे हैं, आप नहीं| इसी को अजपा-जप कहते हैं|
भगवान श्रीकृष्ण कि बंसी की ध्वनी प्रणव यानि ओंकार के रूप में अनाहत नाद की ध्वनी सुननी आरम्भ हो जाए तो साथ साथ उसे भी सुनते रहो| चैतन्य में ॐ ... का जाप भी करते रहो|
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि इतने काम एक साथ कैसे करें?
वैसे ही करें जैसे साइकिल चलाते समय पैडल भी चलाते है, हैंडल भी पकड़ते हैं, ब्रेक पर अंगुलियाँ भी रखते हैं, सामने भी देखते हैं और याद भी रखते हैं कि कहाँ जाना है, आदि आदि|
यह सर्वव्यापक प्रेम ही कृष्ण चैतन्य है| उनकी बंसी की ध्वनि ही समस्त सृष्टि का निर्माण, पालन-पोषण और संहार कर रही है| उनके प्रेम की जिस शक्ति ने पूरी सृष्टि को धारण कर रखा है वे श्रीराधा जी हैं| सारी सृष्टि उनका एक संकल्प मात्र है| समस्त अस्तित्व उनका ही है, वे ही वे हैं, हम और आप नहीं|
ह्रदय के प्रेम से आरम्भ करते है और सर्वव्यापी अनंत प्रेम रूपी कृष्ण चैतन्य में स्थित रहते है| वही हमारा अस्तित्व है| उसका ध्यान जब भी जितनी भी देर तक नियमित रूप से कर सकें करें| उसका इतना चिंतन करें कि आपका चिंतन उनको हो जाए|
वे ही विष्णु हैं, वे ही नारायण हैं और वे ही परम शिव हैं|
ध्यान के पश्चात तुरंत उठें नहीं, खूब देर तक उनके आनंद की अनुभूति करें| हर समय उनकी स्मृति रखें| उनका त्रिभंग मुरारी विग्रह सदा भ्रूमध्य में (यानि कूटस्थ में) रहे|
सब का कल्याण हो|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय|
ॐ ॐ ॐ ||
=सावशेष =
(अगला भाग कुछ दिनों के पश्चात प्रस्तुत करूंगा)
कृपाशंकर
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