Friday 3 February 2017

ध्यान साधना --- (भाग २)

ध्यान साधना --- (भाग २)
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कल मैंने भाग १ में ध्यान साधना के बारे में आरंभिक जानकारी दी थी और अजपा-जप के बारे में लिखा था| अनाहत नाद यानि ओंकार पर ध्यान का भी थोडा जिक्र किया था|
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पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस साधना में सिद्धि उसी को मिलती है जिसका आचार विचार सही होता है| इसलिए ऋषि पातंजलि ने यम नियमों की आवश्यकता पर जोर दिया है|
योग मार्ग में जो उच्चतर साधनाएँ हैं उन्हें गुरुमुखी यानि गुरुगम्य रखा गया है| वे प्रत्यक्ष गुरु द्वारा शिष्य की पात्रता देखकर ही दी जाती है| उनके बारे में सार्वजनिक चर्चा का निषेध है|
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सूक्ष्म प्राणायाम की क्रियाओं व ध्यान साधना के साधना काल में यदि साधक का आचरण सही नहीं होता तो उसे या तो मस्तिष्क की गंभीर विकृति हो जाती है या वह असुर बन जाता है| जिनके आचार विचार सही थे वे देवता बने, जिनके गलत थे वे असुर बने|
"आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" आचारहीन को वेद भी नहीं पवित्र कर सकते| श्रुति भगवती कहती है कि दुश्चरित्र कभी भी आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता। सदाचार होने पर ही धर्म उत्पन्न होता है।
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हमें मंत्रसिद्धि असत्यवादन के कारण नहीं होती| असत्य बोलने के कारण हमारी वाणी दग्ध हो जाती है| जैसे जला हुआ पदार्थ यज्ञ के काम का नहीँ होता है, वैसे ही जिसकी वाणी झूठ बोलती है, उससे कोई जप तप नहीं हो सकता| वह चाहे जितने मन्त्रों का जाप करे, कितना भी ध्यान करे, उसे फल कभी नहीं मिलेगा|
दूसरों की निन्दा करना भी वाणी का दोष है। जो व्यक्ति अपनी वाणी से किसी दूसरे की निन्दा करता है वह कोई जप तप नहीं कर सकता| इसलिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की आवश्यकता है|
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शिष्यत्व की भी पात्रता होती है जिसके होने पर भगवन स्वयं गुरु रूप में साधक का मार्गदर्शन करते हैं|
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सभी को शुभ मंगल कामनाएँ| आप सब में हृदयस्थ भगवान नारायण को प्रणाम| परमशिव सब का कल्याण करें|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ ॐ ॐ ||
इति||

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