अनन्य भाव से भक्ति ---
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भगवान को अपने हृदय का पूर्ण प्रेम दो और उनसे सिर्फ उनका प्रेम माँगो। उनका प्रेम मिल गया तो सब कुछ मिल गया। अन्य कुछ मांगना -- एक व्यापार है। प्रेम करोगे तो प्रेम मिलेगा ही। उनका प्रेम मिल जाएगा तो सब कुछ मिल जाएगा।
गीता की विलक्षणता -- अनन्य भाव से भक्ति है, जिसे हम उनकी कृपा से ही समझ सकते हैं। परमात्मा के अतिरिक्त किसी दूसरे का भाव (अपने अहं का भी नहीं) मन में न लाना ही अनन्य भाव कहलाता है। गीता के अनुसार अनन्य भक्ति से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। भगवान कहते हैं --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥"
(इस श्लोक की अनेक स्वनामधन्य महान भाष्यकारों ने बहुत विस्तृत टीकाएँ लिखी हैं)
भगवान कहते हैं --
"चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥७:१६॥"
"तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥७:१७॥"
अर्थात् - हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करने वाले (सुकृतिन:) आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं॥
उनमें भी मुझ से नित्ययुक्त, अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है॥
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भगवान कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - मेरे में अनन्ययोग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहनेका स्वभाव होना और जन-समुदायमें प्रीतिका न होना।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
(ये दो श्लोक समझने में कठिन हैं। इनके भाष्यों का स्वाध्याय कीजिये, या किन्हीं गीता मनीषी महात्मा के चरणों में बैठकर इनका विस्तृत अर्थ समझिए।)
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सार की बात यह है कि भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी हृदय में नहीं होना चाहिए।
(इसे मैं वेदान्त के दृष्टिकोण से नहीं समझाऊंगा, क्योंकि उसकी सार्वजनिक चर्चा का निषेध है। वेदान्त का विषय सिर्फ संत, महात्माओं, त्यागी, तपस्वी और विरक्तों के लिए ही है; संसारी व्यक्तियों के लिए नहीं। बहुत कम लोग ही अपवाद होते हैं।)
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०२२
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