ध्यान साधना में आने वाले आवरण और विक्षेप रूपी बाधाओं का समाधान .....
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साधना में आ रही समस्त बाधाओं, विक्षेप आदि का तुरंत और एकमात्र समाधान है ..... सत्संग, सत्संग और निरंतर सत्संग|
अन्य कोई समाधान नहीं है| बाधादायक किसी भी परिस्थिति को तुरंत नकार दो| एक सात्विक जीवन जीओ और आध्यात्मिक रूप से उन्नत लोगों के साथ रहो| अपने ह्रदय में पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम को जागृत करो और अपने अस्तित्व को गुरु व परमात्मा के प्रति समर्पित करने का निरंतर अभ्यास करते रहो|
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जीभ को सदा ऊपर की ओर मोड़ कर रखने का प्रयास करते रहो| खेचरी मुद्रा का खूब अभ्यास करो| खेचरी मुद्रा सिद्ध होने पर ध्यान खेचरी मुद्रा में ही करो| खेचरी मुद्रा के इतने लाभ हैं कि यहाँ उन्हें बताने के लिए स्थान कम पड़ जाएगा|
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ऊनी कम्बल के आसन पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर बैठो| समय हो तो ध्यान से पूर्व कुछ देर हल्के व्यायाम जैसे सूर्य नमस्कार और कुछ आसन कर लो|
ध्यान से पूर्व महामुद्रा का अभ्यास नियमित रूप से नित्य करने से कमर सीधी रहती है और कभी नहीं झुकती| नींद की झपकियाँ आने लगे तब पुनश्चः तीन चार बार महामुद्रा का अभ्यास कर लो| कमर सीधी कर के बैठो इससे नींद नहीं आएगी|
ध्यान करने से पहले अपने गुरु और परमात्मा से उनके अनुग्रह के लिए प्रार्थना अवश्य करें|
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ध्यान में अनाहत और आज्ञा चक्र पर एक साथ अपनी चेतना को केन्द्रित रखें| वास्तव में मस्तकग्रंथि जिसे मेरुशीर्ष और Medulla Oblangata भी कहते हैं, ही आज्ञा चक्र है| वही कूटस्थ केंद्र है| वहीं ज्योति का प्राकट्य होता है और वहीं नाद श्रवण होता है| वहीं से ब्रह्मांडीय ऊर्जा देह में प्रवेश करती है| यह देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है जहाँ मेरुदंड की नाड़ियाँ मस्तिष्क से मिलती है| जीव के प्राण यहीं रहते हैं| इस भाग की कोई शल्य क्रिया भी नहीं हो सकती| भ्रूमध्य में तो उस ज्योति का प्रतिबिंब ही दिखाई देता है इसलिए गुरु की आज्ञा से वहाँ ध्यान करते हैं| पर स्वतः ही चेतना मस्तक ग्रंथि पर स्वाभाविक रूप से चली जाती है|
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ध्यान में अजपा जाप और नाद के श्रवण का अभ्यास निरंतर करते रहो|
बाद में अपनी चेतना को नाद में और भ्रूमध्य में दिखने वाली श्वेत ज्योति में समाहित कर दो| यही ध्यान है|
इधर उधर चेतना और विचार जाएँ तो ॐकार के मानसिक जाप के साथ साथ प्रेमपूर्वक उन्हें बापस भ्रूमध्य में ले आओ|
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ध्यान से पूर्व नाडी शुद्धि के लिए अनुलोम-विलोम प्राणायाम करो| इसमें पूरक यानि साँस लेते समय मूलाधार से आज्ञाचक्र तक क्रमशः हर चक्र पर ॐ का मानसिक जाप करो| रेचक यानि साँस छोड़ते समय बापस आज्ञाचक्र से मूलाधार तक ॐ का जाप मानसिक रूप से हर चक्र पर करें|
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सहस्त्रार गुरु का स्थान है जहाँ से गुरु महाराज ही सब कुछ कर रहे हैं, यही भाव रखें| उन्हीं को कर्ता बनाओ| स्वयं कभी कर्ता मत बनो| आप तो उनके एक उपकरण मात्र हैं| वास्तव में सारी साधना वे ही आपके माध्यम से कर रहे हैं| अपने सारे अच्छे-बुरे सब कर्म और उनके फल उन्हें समर्पित कर दो| इससे गुरु महाराज बड़े प्रसन्न होते हैं और आपकी साधना में होने वाली किसी भी कमी का शोधन कर देते हैं| कभी कर्ता मत बनो| किसी भी प्रकार के प्रलोभन में मत आओ|
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अपने अहं यानि अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का समर्पण गुरु तत्व में करना ही साधना है और उनके श्रीचरणों में आश्रय मिलना ही सबसे बड़ी सिद्धि है|
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मूलाधार से आज्ञा चक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| इसे परासुषुम्ना भी कहते हैं| जब तक चेतना यहाँ है अज्ञान का नाश नहीं होता| आज्ञा चक्र से सहस्त्रार तक का क्षेत्र ज्ञानक्षेत्र है| सारा ज्ञान यहीं प्राप्त होता है| इसे उत्तरा सुषुम्ना भी कहते हैं| इसमें प्रवेश गुरु कृपा से ही होता है, स्वयं के प्रयास से नहीं|
गुरु कृपा ही केवलं| यहीं सारी अध्यात्मिक सिद्धियाँ हैं| सहस्त्रार से आगे का क्षेत्र तो पराक्षेत्र है और उससे भी आगे सुमेरु है जहां आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं रहता|
असली श्रीचक्र भी सहस्त्रार में है| श्री बिंदु भी वहीं है| ज्येष्ठा, वामा और रौद्री ग्रंथियाँ भी वहीँ हैं जहाँ से तीनों गुण नि:सृत होते हैं|
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जब ह्रदय में एक परम प्रेम जागृत होता है और प्रभु को पाने की अभीप्सा और तड़फ़ पैदा होती है तब भगवान किसी ना किसी सद्गुरु के रूप में निश्चित रूप से आकर मार्गदर्शन करते हैं|
तब तक भगवान श्रीकृष्णरूप में या शिवरूप में गुरु हैं|
"कृष्णं वन्दे ज्गत्गुरुम्"| भगवन श्री कृष्ण इस काल के सबसे बड़े गुरु हैं| वे गुरुओं के भी गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गायत्री मन्त्र के सविता देव भी वे ही हैं, भागवत मन्त्र के वासुदेव भी वे ही है, और समाधि में कूटस्थ में योगियों को दिखने वाले पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र यानि पंचमुखी महादेव भी वे ही हैं| उस पंचमुखी नक्षत्र का भेदन और उससे परे की स्थिति योगमार्ग की उच्चतम साधना है जिसके पश्चात ही जीव स्वयं शिवभाव को प्राप्त होने लगता है और तभी उसे -- शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि --- का बोध होता है|
सहस्त्रार ही श्री गुरू चरणों का स्थान है| वहां पर स्थिति ही गुरु चरणों में आश्रय पाना है| गुरु चरणों में आश्रय पाना ही सबसे बड़ी सिद्धि है जिसके आगे अन्य सब सिद्धियाँ गौण हैं|
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हमारी बातो का दूसरों पर प्रभाव नहीं पड़ता, कोई हमारी बात सुनता नहीं है, इसका एकमात्र कारण हमारी साधना में कमी होना है| हमारी व्यक्तिगत साधना अच्छी होगी तभी हमारे विचारों का प्रभाव दूसरों पर पड़ेगा, अन्यथा नहीं| हिमालय की कंदराओं में तपस्यारत संतों के सद्विचार और शुभ कामनाएँ मानवता का बहुत कल्याण करती हैं| इसीलिए हमारे यहाँ माना गया है कि आत्मसाक्षात्कार यानि ईश्वर की प्राप्ति ही सबसे बड़ी सेवा है जो आप औरों के लिए कर सकते हो|
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इस विषय पर पूर्व में अनेक प्रस्तुतियाँ दे चुका हूँ| इसका उद्देष्य आपके ह्रदय में एक अभीप्सा और प्रेम जागृत करना ही है|
कुछ और भी बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें गुरु परंपरा के अनुशासन के कारण सार्वजनिक रूप से बताने का निषेध है| साधक की पात्रता के अनुसार ही वे व्यक्तिगत रूप से बताई जाती हैं|
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आप सब में हृदयस्थ भगवान वासुदेव को प्रणाम| बहुत बहुत शुभ कामनाएँ|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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साधना में आ रही समस्त बाधाओं, विक्षेप आदि का तुरंत और एकमात्र समाधान है ..... सत्संग, सत्संग और निरंतर सत्संग|
अन्य कोई समाधान नहीं है| बाधादायक किसी भी परिस्थिति को तुरंत नकार दो| एक सात्विक जीवन जीओ और आध्यात्मिक रूप से उन्नत लोगों के साथ रहो| अपने ह्रदय में पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम को जागृत करो और अपने अस्तित्व को गुरु व परमात्मा के प्रति समर्पित करने का निरंतर अभ्यास करते रहो|
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जीभ को सदा ऊपर की ओर मोड़ कर रखने का प्रयास करते रहो| खेचरी मुद्रा का खूब अभ्यास करो| खेचरी मुद्रा सिद्ध होने पर ध्यान खेचरी मुद्रा में ही करो| खेचरी मुद्रा के इतने लाभ हैं कि यहाँ उन्हें बताने के लिए स्थान कम पड़ जाएगा|
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ऊनी कम्बल के आसन पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर बैठो| समय हो तो ध्यान से पूर्व कुछ देर हल्के व्यायाम जैसे सूर्य नमस्कार और कुछ आसन कर लो|
ध्यान से पूर्व महामुद्रा का अभ्यास नियमित रूप से नित्य करने से कमर सीधी रहती है और कभी नहीं झुकती| नींद की झपकियाँ आने लगे तब पुनश्चः तीन चार बार महामुद्रा का अभ्यास कर लो| कमर सीधी कर के बैठो इससे नींद नहीं आएगी|
ध्यान करने से पहले अपने गुरु और परमात्मा से उनके अनुग्रह के लिए प्रार्थना अवश्य करें|
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ध्यान में अनाहत और आज्ञा चक्र पर एक साथ अपनी चेतना को केन्द्रित रखें| वास्तव में मस्तकग्रंथि जिसे मेरुशीर्ष और Medulla Oblangata भी कहते हैं, ही आज्ञा चक्र है| वही कूटस्थ केंद्र है| वहीं ज्योति का प्राकट्य होता है और वहीं नाद श्रवण होता है| वहीं से ब्रह्मांडीय ऊर्जा देह में प्रवेश करती है| यह देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है जहाँ मेरुदंड की नाड़ियाँ मस्तिष्क से मिलती है| जीव के प्राण यहीं रहते हैं| इस भाग की कोई शल्य क्रिया भी नहीं हो सकती| भ्रूमध्य में तो उस ज्योति का प्रतिबिंब ही दिखाई देता है इसलिए गुरु की आज्ञा से वहाँ ध्यान करते हैं| पर स्वतः ही चेतना मस्तक ग्रंथि पर स्वाभाविक रूप से चली जाती है|
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ध्यान में अजपा जाप और नाद के श्रवण का अभ्यास निरंतर करते रहो|
बाद में अपनी चेतना को नाद में और भ्रूमध्य में दिखने वाली श्वेत ज्योति में समाहित कर दो| यही ध्यान है|
इधर उधर चेतना और विचार जाएँ तो ॐकार के मानसिक जाप के साथ साथ प्रेमपूर्वक उन्हें बापस भ्रूमध्य में ले आओ|
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ध्यान से पूर्व नाडी शुद्धि के लिए अनुलोम-विलोम प्राणायाम करो| इसमें पूरक यानि साँस लेते समय मूलाधार से आज्ञाचक्र तक क्रमशः हर चक्र पर ॐ का मानसिक जाप करो| रेचक यानि साँस छोड़ते समय बापस आज्ञाचक्र से मूलाधार तक ॐ का जाप मानसिक रूप से हर चक्र पर करें|
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सहस्त्रार गुरु का स्थान है जहाँ से गुरु महाराज ही सब कुछ कर रहे हैं, यही भाव रखें| उन्हीं को कर्ता बनाओ| स्वयं कभी कर्ता मत बनो| आप तो उनके एक उपकरण मात्र हैं| वास्तव में सारी साधना वे ही आपके माध्यम से कर रहे हैं| अपने सारे अच्छे-बुरे सब कर्म और उनके फल उन्हें समर्पित कर दो| इससे गुरु महाराज बड़े प्रसन्न होते हैं और आपकी साधना में होने वाली किसी भी कमी का शोधन कर देते हैं| कभी कर्ता मत बनो| किसी भी प्रकार के प्रलोभन में मत आओ|
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अपने अहं यानि अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का समर्पण गुरु तत्व में करना ही साधना है और उनके श्रीचरणों में आश्रय मिलना ही सबसे बड़ी सिद्धि है|
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मूलाधार से आज्ञा चक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| इसे परासुषुम्ना भी कहते हैं| जब तक चेतना यहाँ है अज्ञान का नाश नहीं होता| आज्ञा चक्र से सहस्त्रार तक का क्षेत्र ज्ञानक्षेत्र है| सारा ज्ञान यहीं प्राप्त होता है| इसे उत्तरा सुषुम्ना भी कहते हैं| इसमें प्रवेश गुरु कृपा से ही होता है, स्वयं के प्रयास से नहीं|
गुरु कृपा ही केवलं| यहीं सारी अध्यात्मिक सिद्धियाँ हैं| सहस्त्रार से आगे का क्षेत्र तो पराक्षेत्र है और उससे भी आगे सुमेरु है जहां आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं रहता|
असली श्रीचक्र भी सहस्त्रार में है| श्री बिंदु भी वहीं है| ज्येष्ठा, वामा और रौद्री ग्रंथियाँ भी वहीँ हैं जहाँ से तीनों गुण नि:सृत होते हैं|
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जब ह्रदय में एक परम प्रेम जागृत होता है और प्रभु को पाने की अभीप्सा और तड़फ़ पैदा होती है तब भगवान किसी ना किसी सद्गुरु के रूप में निश्चित रूप से आकर मार्गदर्शन करते हैं|
तब तक भगवान श्रीकृष्णरूप में या शिवरूप में गुरु हैं|
"कृष्णं वन्दे ज्गत्गुरुम्"| भगवन श्री कृष्ण इस काल के सबसे बड़े गुरु हैं| वे गुरुओं के भी गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गायत्री मन्त्र के सविता देव भी वे ही हैं, भागवत मन्त्र के वासुदेव भी वे ही है, और समाधि में कूटस्थ में योगियों को दिखने वाले पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र यानि पंचमुखी महादेव भी वे ही हैं| उस पंचमुखी नक्षत्र का भेदन और उससे परे की स्थिति योगमार्ग की उच्चतम साधना है जिसके पश्चात ही जीव स्वयं शिवभाव को प्राप्त होने लगता है और तभी उसे -- शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि --- का बोध होता है|
सहस्त्रार ही श्री गुरू चरणों का स्थान है| वहां पर स्थिति ही गुरु चरणों में आश्रय पाना है| गुरु चरणों में आश्रय पाना ही सबसे बड़ी सिद्धि है जिसके आगे अन्य सब सिद्धियाँ गौण हैं|
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हमारी बातो का दूसरों पर प्रभाव नहीं पड़ता, कोई हमारी बात सुनता नहीं है, इसका एकमात्र कारण हमारी साधना में कमी होना है| हमारी व्यक्तिगत साधना अच्छी होगी तभी हमारे विचारों का प्रभाव दूसरों पर पड़ेगा, अन्यथा नहीं| हिमालय की कंदराओं में तपस्यारत संतों के सद्विचार और शुभ कामनाएँ मानवता का बहुत कल्याण करती हैं| इसीलिए हमारे यहाँ माना गया है कि आत्मसाक्षात्कार यानि ईश्वर की प्राप्ति ही सबसे बड़ी सेवा है जो आप औरों के लिए कर सकते हो|
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इस विषय पर पूर्व में अनेक प्रस्तुतियाँ दे चुका हूँ| इसका उद्देष्य आपके ह्रदय में एक अभीप्सा और प्रेम जागृत करना ही है|
कुछ और भी बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें गुरु परंपरा के अनुशासन के कारण सार्वजनिक रूप से बताने का निषेध है| साधक की पात्रता के अनुसार ही वे व्यक्तिगत रूप से बताई जाती हैं|
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आप सब में हृदयस्थ भगवान वासुदेव को प्रणाम| बहुत बहुत शुभ कामनाएँ|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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