Sunday 28 November 2021

भगवत्-प्राप्ति ही -- सत्य-सनातन-धर्म है ---

 भगवत्-प्राप्ति ही -- सत्य-सनातन-धर्म है ---

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इस सारी सृष्टि में, और सृष्टि से परे, जो कुछ भी है, वे भगवान स्वयं हैं। उनके संकल्प से ही 'ऊर्जा' और 'प्राण' की उत्पत्ति हुई। सारा भौतिक जगत -- अनंत ऊर्जा-खंडों (Energy blocks) के पृथक-पृथक विभिन्न आवृतियों (Frequencies) पर स्पंदन (Vibrations) से निर्मित है। सारा आकाश -- ऊर्जा और प्राण का ही अनंत विस्तार है।
प्राण-तत्व ने सारे प्राणियों में जीवन को व्यक्त किया है। इस प्राण और ऊर्जा के पीछे ज्ञात और अज्ञात जो कुछ भी है, वे स्वयं भगवान हैं। यह सृष्टि निरंतर गतिशील एक तीव्र अनंत प्रवाह है। कहीं कुछ भी स्थिर नहीं है, निरंतर परिवर्तन हो रहा है।
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भारत के मनीषियों ने प्रकृति के सारे रहस्यों को अनावृत किया है, और उन्हें जानने का मार्ग भी दिखाया है। भक्ति और समर्पण के द्वारा हम स्वयं को भगवान के साथ जोड़ कर उन्हें उपलब्ध हो सकते हैं। श्रुतियों (वेद-उपनिषदों) व श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ग्रन्थों में सारा मार्गदर्शन है। आवश्यकता है सत्य को जानने की एक तीव्र अभीप्सा और परमप्रेम की। भगवान ही एकमात्र सत्य हैं।
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यह भगवत्-प्राप्ति ही -- सत्य-सनातन-धर्म है। यही हमारा स्वधर्म है। इस स्वधर्म के लिए हमारे हृदय में एक प्रचंड अग्नि जलती रहेगी तो उसकी वेदना को शांत करने के लिए भगवान को प्रत्यक्षतः आना ही पड़ेगा। उनका निरंतर अनुस्मरण करते हुये अपना सम्पूर्ण अस्तित्व भगवान को समर्पित करना ही स्वधर्मरूप युद्ध है। इसी में सार है। भगवान ने गीता में आदेश दिया है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
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इस स्वधर्म में ही हमारे इस भौतिक शरीर का निधन होना चाहिए। गीता में यह भगवान का कथन है --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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इस धर्म का थोड़ा सा आचरण भी महान भय से हमारी रक्षा करता है --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् -- इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२१

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