भगवान स्वयं ही स्वयं का ध्यान करते हैं। मैं तो कहीं भी नहीं हूँ। भगवान अपने एक रूप विशेष में, अपने ही एक दूसरे रूप विशेष का ध्यान कर रहे हैं। उनकी छवि अनुपम है। उनकी दिव्य ज्योति, और उस में से निःसृत हो रहे मधुर नाद, व उनकी सर्वव्यापकता को मैं "कूटस्थ" कहता हूँ। इस कूटस्थ का केंद्र सर्वत्र है, लेकिन परिधि कहीं भी नही।
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यह कूटस्थ ही मेरा हृदय, मेरा अस्तित्व, मेरा आश्रम, मेरा घर और मेरा निवास है। इसी में सारे तीर्थ हैं, यही मेरा उपास्य, यही मेरा इष्ट और यही मेरा एकमात्र मित्र व संबंधी है। यही वासुदेव है, यही नारायण है, और यही परमशिव है।
मेरे विचार ही मेरे उद्दंड श्रोता हैं, जिन्हें बार-बार बताना पड़ता है कि कभी नकारात्मक मत सोचो, सरल जीवन जीओ और सदा भगवान का चिंतन करो।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
३ दिसंबर २०२१
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