गुरुकृपा उन्हीं पर होती है जो सत्यनिष्ठ होते हैं; कोई भी साधना हो वह विधि-विधान से क्रमानुसार हो ---
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अपने प्रारब्ध कर्मों के अनुसार भगवान से जैसी भी और जो भी प्रेरणा मिले, वही साधना करनी चाहिए। महाभारत व रामायण आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय सभी को करना चाहिए। समझने की बौद्धिक क्षमता हो तो उपनिषदों का स्वाध्याय भी सभी करें। यदि वे समझ में नहीं आते हैं तो उन्हें छोड़ दीजिये, और यथासंभव वही साधना खूब करें, जिसकी प्रेरणा भगवान से मिल रही हो। आपको आनंद मिलता है, और प्रेम की अनुभूतियाँ होती है तो आप सही मार्ग पर चल रहे हैं।
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आजकल अनेक साधक अति उत्साहित होकर देवीअथर्वशीर्ष या सौन्दर्य-लहरी के स्वाध्याय के उपरांत अपने आप ही श्रीविद्या के मंत्र का जप करने लगते है। बिना दीक्षा लिए और बिना किसी अधिकृत आचार्य के मार्गदर्शन के श्रीविद्या के "पञ्च-दशाक्षरी" मंत्र का जप और साधना नहीं करनी चाहिए। इसका उल्टा असर भी पड़ सकता है, यानि लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। इसका एक क्रम होता है, उसी क्रम में इसकी साधना होती है, जो किसी अधिकृत आचार्य से सीखें। आचार्य शंकर (आदि शंकराचार्य) श्रीविद्या के उपासक थे। उनका ग्रंथ सौंदर्य-लहरी श्री-विद्या की साधना का अनुपम ग्रंथ है, जो तंत्र-आगमों की अमूल्य निधि है। आचार्य शंकर की परंपरा में श्रीविद्या की दीक्षा अंतिम और उच्चतम दीक्षा होती है। जिसने श्रीविद्या की दीक्षा ले ली है, उसे अन्य किसी दीक्षा की आवश्यकता नहीं है।
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योगमार्ग में "क्रियायोग" की दीक्षा उच्चतम होती है। क्रियायोग की साधना से कुंडलिनी जागरण होता है, इसके साधक को यम-नियमों का पालन अनिवार्य है, अन्यथा लाभ के सथान पर हानि की संभावना अधिक है। (यम = अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) (नियम= शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान)
यदि अच्छा आचरण नहीं कर सकते तो क्रियायोग की साधना न करें। यह उन्हीं के लिए है जिनका आचरण और विचार सही हैं, व परमात्मा को पाने की अभीप्सा है। क्रियायोग के भी क्रम हैं, इसकी साधना भी क्रमानुसार होती है जिन्हें किसी अधिकृत आचार्य से दीक्षा लेकर ही सीखें। क्रियायोग की सिद्धि गुरुकृपा से होती है। गुरुकृपा भी उन्हीं पर होती है जो सत्यनिष्ठ होते हैं।
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जीवन का सार भगवान की भक्ति में है। अपने हर दिन का आरंभ और समापन भगवान की भक्ति से करें, और हर समय उन्हें अपनी स्मृति में रखें।
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०२१
"हमारी चेतना निरंतर उच्चतम स्तर पर हो। हमारे आचरण और विचारों का स्तर उच्चतम हो। बौद्धिक क्षमता की सीमा में हमारा लौकिक ज्ञान भी उच्चतम हो। परमात्मा की निरंतर अभिव्यक्ति हमारे माध्यम से हो।" यह समष्टि की सबसे बड़ी सेवा है, जो हम कर सकते हैं।
ReplyDeleteॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! 🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹
२३ सितंबर २०२१