अब जानने और पाने को कुछ नहीं बचा है, भगवान में स्वयं का विलय ही एकमात्र विकल्प है ---
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करुणा और परमप्रेमवश जब भगवान स्वयं साक्षात् प्रत्यक्ष हम सब के ह्रदय-मंदिर में बिराजे हैं, कोई भी दूरी नहीं है, तब जानने व पाने को बचा ही क्या है? एकमात्र विकल्प उनमें विलय ही है, और कुछ समझ में नहीं आता, अतः बुद्धि को तिलांजलि दे दी है। बौद्धिक ही नहीं, किसी भी तरह की आध्यात्मिक चर्चा अब अच्छी नहीं लगती। शास्त्रों को समझना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असंभव है क्योंकि बुद्धि अत्यल्प और अति सीमित है। एक छोटी सी कटोरी में अथाह महासागर को नहीं भर सकते। बुद्धि में क्षमता ही नहीं है कुछ समझने की, अतः वह कटोरी ही महासागर में फेंक दी है। भगवान स्वयं ही अब एकमात्र अस्तित्व हैं।
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हमारे जीवन का छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हर कार्य ईश्वरार्पित बुद्धि से हो। हर कार्य के आरम्भ, मध्य और अंत में निरंतर परमात्मा का स्मरण कर उन्हें ही कर्ता बनाना चाहिये। साँस हमें लेनी ही पड़ती है, न चाहते हुये भी हम साँस लेते हैं। वास्तव में ये साँसें भगवान ही ले रहे हैं। हर दो साँसों के मध्य में एक संधिकाल होता है। संधिकाल में की हुई साधना "संध्या" कहलाती है। उस संध्याकाल में परमात्मा का स्मरण रहना ही चाहिए। हमें भूख लगती है तब जो कुछ भी खाते हैं, वह भी परमात्मा को ही अर्पित हो। हमें सुख-दुःख की अनुभूतियाँ होती हैं, वे सुख और दुःख भी परमात्मा के ही हैं, हमारे नहीं। साधना मार्ग की जो भी कठिनाइयाँ हैं, वे भी परमात्मा की ही हैं, हमारी नहीं। हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है। सच्चिदानंद परमात्मा के ध्यान और चिंतन में ही सर्वाधिक आनंद और संतुष्टि उन की परम कृपा से जब प्राप्त होती हैं, तब और क्या चाहिये ?? कुछ भी नहीं।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२१
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