Sunday 26 September 2021

पंजाब में आज यदि कोई हिन्दू/सिक्ख जीवित है तो वह मराठा वीरों के पराक्रम, त्याग, बलिदान और परिश्रम का ही परिणाम है ---

 

पंजाब में आज यदि कोई हिन्दू/सिक्ख जीवित है तो वह मराठा वीरों के पराक्रम, त्याग, बलिदान और परिश्रम का ही परिणाम है ---
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सन १७५७ ई. की बात है। परमवीर मराठा सेनापति रघुनाथ राव की सेना झाँसी में थी और वहाँ से बिहार, बंगाल और उड़ीसा को विधर्मियों से मुक्त कराने के लिए कूच करने वाली थी। प्रस्थान से पूर्व पंजाब से एक दूत आया और रघुनाथ राव से तुरंत मिलने की प्रार्थना की। दूत ने एक पत्र दिया, जिसमें लिखा था कि हम पंजाब के नानक-पंथी हिन्दू आज अत्यंत ही दयनीय स्थिति में हैं। अहमदशाह अब्दाली ने एक फतवा निकाल रखा है कि किसी भी नानकपंथी या अन्य हिन्दू का सिर काट कर लाने वाले को १ रुपया प्रति सिर ईनाम में दिया जाएगा। अफगान सिपाही और स्थानीय मुस्लिम हमें घेरते हैं, हत्याएं करते हैं, और बैलगाड़ियों में सिर भरकर ले जाते हैं। हरमंदिर साहिब का विध्वंश हो चूका है, पवित्र सरोवर को काटी हुई गायों और मिट्टी से भर दिया गया है। हमारी रक्षा करने वाला कोई नहीं है, हमारा वंशनाश होने ही वाला है। यदि कोई हमें बचा सकता है तो वह श्रीमंत पेशवा बाजीराव का सुपुत्र रघुनाथराव ही है, --त्राहिमाम त्राहिमाम हमारी रक्षा करो।
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श्रीमंत सेनापति रघुनाथराव ने मराठा सेना को दो भागों में विभाजित किया। एक भाग को उड़ीसा के मंदिरों को विधर्मी आतताइयों के अधिकार से मुक्त कराने के लिए भेज दिया, और स्वयं अपने साथ अपने तीन सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं - गोविंदजी पंत, मल्हारराव होल्कर और दत्ताजी सिंधिया को लेकर पंजाब के लिए के रवाना हो गया।
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पंजाब पूरी तरह विधर्मी आतताइयों के आधीन था। कभी तुर्क, कभी अफगान, कभी मुगल आते और नरसंहार कर के चले जाते। वीर माधोदास वैरागी नहीं रहे थे। अधिकांश पंजाबी हिंदुओं ने तलवार की नोक पर इस्लाम कबूल कर लिया था। जिन्होने इस्लाम नहीं कबूला वे जज़िया कर देकर जीवित थे। उनका भी अंत समय निकट था। पंजाब में कोई भी हिन्दू पूजा-स्थल नहीं बचा था। गुरु गोविन्द सिंह और उनके पूर्व गुरुओं द्वारा स्थापित एकमात्र धार्मिक स्थान हरमंदिर साहिब का विध्वंश हो चूका था। हरमंदिर साहब में नित्य गो-हत्या होती, और मस्सा रांगड़ नामक विधर्मी हत्यारा, मंदिर के गर्भगृह में वेश्याओं को नचवाता, नित्य नई हिन्दू कन्याओं का अपहरण करवाता और उनका बलात्कार करता। सभी ग्रामीण भागकर जंगलों में छिप गए थे, जहाँ अफगान सेना उनका शिकार करतीं। समर्थवान लोग राजपूताने के बीकानेर में शरणार्थी हो गए थे। ऐसे विकराल समय में सिर्फ मराठा वीर अपने सनातन धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए युद्ध कर रहे थे।
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मराठा श्रीमंत रधुनाथराव की सेना एक के बाद एक अफगान चौकियों को नष्ट करते हुए मात्र कुछ ही दिनों में पंजाब जा पहुंची, और बिना किसी विलंब के लाहोर और अमृतसर पर एक साथ भीषण आक्रमण कर दिया। मराठों का रौद्र रूप देख कर सारे अफगान मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। लाहोर और अमृतसर पर भगवा पताका फहरा दी गई। अहमदशाह अब्दाली का बेटा औरतों के कपड़े पहिन कर काबुल भाग गया। मराठा सेना ने अफगानों के सारे अस्त्र-शस्त्र और खजाना छीन लिया। दूसरे ही दिन मराठा सेना ने हरमंदर साहब को मुक्त करा कर आतताई मस्सा रांगड़ और उसके साथियों के सिर काट दिये, और सरोवर को पवित्र किया। मराठा सेना यहीं तक नहीं रुकी, अफगानिस्तान के अटक तक जाकर भगवा ध्वज फहराया और बापस लौट आई। हरमंदर साहब और पवित्र सरोवर के पुनर्निर्माण के लिए मराठों ने अफगानों से छीना हुआ धन दिया।
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इसके ठीक तीन वर्ष उपरांत बड़ा धोखा और विश्वासघात हुआ। शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह दुर्रानी उर्फ अहमद शाह अब्दाली को यह संदेश भेजा कि आप भारत पर हमला करो, भारत के मुसलमान आपका साथ देंगे। फिर पानीपत की तृतीय लड़ाई हुई जो एक धर्मयुद्ध थी। इसमें अधर्म की धर्म पर अस्थायी विजय हुई। जिन की रक्षा मराठों ने की थी, जिन के साथ उनकी संधियाँ हुई थीं, जो उनकी सहायता करने के लिए वचनबद्ध थे, उन्होने विश्वासघात किया और विजयश्री नहीं प्राप्त हुई। फिर भी मराठा योद्धाओं ने पीठ नहीं दिखाई और वीरों की तरह धर्मयुद्ध करते-करते वीरगति को प्राप्त हुए। उस युद्ध में आहूत हुआ मराठा सेनापति भाऊ एक महान वीर था। उस युद्ध में मराठों की वीरता देखकर अहमदशाह अब्दाली इतना डर गया कि फिर उसका साहस नहीं हुआ मराठों से लड़ने का। मराठों की और टुकड़ियाँ आईं और उन्होने पूरे भारत से मुगलों की सत्ता को उखाड़ फेंका। यह तो भारत का समय ही खराब था कि अंग्रेजों के छल-कपट और धोखे से मराठों से सत्ता छिन गई और शासन पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ। फिर भी भारत ने कभी पराजय स्वीकार नहीं की और सदा प्रतिरोध किया।
२० सितंबर २०२१

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