Tuesday 30 April 2019

कर्ताभाव से कैसे मुक्त होकर साक्षीभाव में रहें, फिर साक्षीभाव से भी कैसे मुक्त हों ? .....

आध्यात्मिक साधना में सबसे बड़ी चुनौती है ..... कर्ताभाव से कैसे मुक्त होकर साक्षीभाव में रहें, फिर साक्षीभाव से भी कैसे मुक्त हों ? .....
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भगवान् श्रीकृष्ण का आदेश है .....
"मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा| निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः||३:३०||
अर्थात् .....मुझ सर्वात्मरूप सर्वज्ञ परमेश्वर वासुदेव में विवेक-बुद्धि से सब कर्म छोड़कर, (यानि मैं सब कर्म ईश्वर के लिये सेवक की तरह कर रहा हूँ, इस बुद्धि से सब कर्म मुझमें अर्पण करके) निराशी आशारहित व निर्मम (जिसका मेरापन सर्वथा नष्ट हो चुका हो उसे निर्मम कहते हैं) व शोकरहित यानि चिन्ता-संताप से रहित होकर युद्ध कर (यह संसार भी एक युद्धभूमि है, यहाँ युद्ध से मतलब है सारे सांसारिक कर्म)||
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जब भगवान स्वयं ही ऐसा आदेश दे रहे हैं तब बिना किसी किन्तु-परन्तु के तुरंत आँखें मीच कर इसका पालन करना होगा| जो भी कर्म हो रहे हैं, वे सब भगवान के हैं, "मैं करता हूँ" .... यह अभिमान है, जिसे आध्यात्मिक साधना द्वारा त्यागना होगा| आरम्भ में इस भाव का अभ्यास करना होगा कि मैं भगवान के लिए ही कार्य कर रहा हूँ| जब यह भाव सिद्ध हो जाए, तब यह भाव साधना होगा कि भगवान ही कर्ता हैं, मैं तो सिर्फ साक्षी हूँ| जब साक्षीभाव भी सध जाए तब यह भाव साधना होगा कि भगवान ही सत्य है, वे ही कर्ता व भोक्ता हैं| हम तो हैं ही नहीं, कहीं कोई पृथकता न हो, इस की साधना करनी होगी|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०१९

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