दान-पुण्य से उत्तम गति तो प्राप्त होती है, पर जन्म-मरण से छुटकारा नहीं मिलता। परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही सबसे बड़ी साधना है। गीता में भगवान कहते हैं --
"तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥६:४६॥"
अर्थात् - "क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो॥"
.
पीछे मुड़कर न देखें, दृष्टि सदा सामने ही रहे, व चलते रहें। रुको मत। मन लगे या न लगे, अपना साधन न छोड़ें। दिन में तीन-चार घंटे तो भजन (नामजप, ध्यान प्राणायाम आदि) करना ही है। कोई बहाने न बनाएँ। मन नहीं लगे तो भी बैठे रहो, पर साधन छूटना नहीं चाहिए। बाधाएँ तो बहुत आयेंगी। असुर और देवता भी नहीं चाहते कि किसी साधक की साधना सफल हो। वे भी मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न करते रहते हैं। इस मार्ग में सिर्फ सद्गुरु की कृपा ही काम आती है। गुरु चूंकि परमात्मा के साथ एक है, और उनसे बड़ा हितकारी अन्य कोई नहीं है, अतः उन्हीं की कृपा साधक की रक्षा करती है।
.
सूक्ष्म प्राणायाम द्वारा पाप नष्ट होते हैं, जिनकी विधि सिद्ध गुरु ही बता सकता है। गुरु सेवा का अर्थ होता है -- "गुरु-प्रदत्त साधना का अनवरत नियमित अभ्यास।" परमात्मा के किस रूप का ध्यान करना है, वह भी गुरु ही बताता है।
.
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ अगस्त २०२१
No comments:
Post a Comment