Monday 14 February 2022

मनुष्य समाज में इतनी हिंसा क्यों व्याप्त है? अहिंसा किसे कहते हैं? इसे परमधर्म क्यों कहा गया है? ---

 (प्रश्न) मनुष्य समाज में इतनी हिंसा क्यों व्याप्त है? अहिंसा किसे कहते हैं? इसे परमधर्म क्यों कहा गया है?

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(उत्तर) एक वीतराग व्यक्ति ही अहिंसक हो सकता है, अन्य कोई नहीं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमें स्थितप्रज्ञ होने का आदेश देते हैं। भगवान स्वयं कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ होने के लिए मनुष्य को (१) वीतरागभयक्रोध, (२) अनुद्विग्नमना, और (३) विगतस्पृह होना पड़ता है। जो स्थितप्रज्ञ है वही मुनी है। अपने भाष्य में आचार्य शंकर ने तो सन्यासी भी उसी को बताया है जो स्थितप्रज्ञ है।
भगवान कहते हैं --
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
अर्थात् - दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
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गीता महाभारत का ही भाग है। महाभारत में पचास से अधिक बार 'अहिंसा' को परमधर्म बताया गया है। लेकिन यह भी स्पष्ट किया है कि मनुष्य का "लोभ और अहंकार" ही हिंसा है। मनुष्य समाज में किसी भी तरह की हिंसा हो, उसका एक ही मूल कारण है, और वह है -- "मनुष्य का लोभ और अहंकार"। अन्य कोई कारण नहीं है।
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लोभ और अहंकार से मुक्ति ही अहिंसा है, जो हमारा परम धर्म है। लोभ और अहंकार से मुक्त कैसे हों? एक वीतराग महात्मा ही लोभ और अहंकार से मुक्त हो सकता है। प्राण-तत्व की साधना हमें वीतराग बनाती है। प्राण-तत्व की साधना एक गोपनीय विषय है जिसे कोई सद्गुरु ही व्यक्तिगत रूप से निष्ठावान सुपात्र को सिखा सकता है, क्योंकि इसमें यम-नियमों का पालन करना पड़ता है। बिना यम-नियमों का पालन किए प्राण-साधना से मस्तिष्क की स्थायी विकृति हो सकती है। इसलिए इसे गोपनीय रखा गया है।
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कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं कि नित्य नियमित रूप से "अजपा-जप" यानि हंसयोग यानि हंसवतीऋक की साधना करें। यह एक मूलभूत वैदिक साधना है जो भारत के प्रायः सभी संप्रदायों में सिखाई जाती है। किसी भी अच्छे संत-महात्मा या गृहस्थ साधक से आप यह विधि सीख सकते हैं। अजपा-जप का नियमित अभ्यास करते करते भी कुछ महीनों में प्राण-तत्व की समझ और उस पर पकड़ आ जाती है। भक्ति के साथ साथ अजपा-जप के नियमित अभ्यास से इंद्रियों की वासना भी शांत हो जाती है। बस एक ही शर्त है कि हमारा आहार, आचरण और विचार शुद्ध हों। कुसंग का त्याग तो हर परिस्थिति में करना ही पड़ता है।
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सार की बात :--- हमारी आहारशुद्धि, अच्छा आचरण और अच्छे विचार ही हमें लोभ और अहंकार से मुक्त कर सकते हैं। तभी हम कह सकते हैं कि "अहिंसा परमोधर्म"॥ तभी हम अहिंसक बन सकते हैं। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
१४ फरवरी २०२२

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