किसी समय मेरे हृदय में अभीप्सा और विवेक की एक प्रचंड अग्नि हर समय प्रज्ज्वलित रहती थी, जो समय के साथ मंद पड़ती पड़ती बुझ गई। जब तक वह अग्नि अपने उष्णतम स्वरूप में प्रज्ज्वलित थी, मैं आनंद में था। उस अग्नि की दाहकता के समाप्त होते ही वह आनंद भी समाप्त हो गया।
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वह अग्नि अब पुनश्च: प्रज्ज्वलित हो रही है। मैं उसकी दाहकता से स्वयं को वंचित नहीं करना चाहता। उसकी दाहकता ही मेरा आनंद है। मैं चाहता हूँ कि मेरा सारा राग-द्वेष, लोभ और अहंकार उस अग्नि में जल कर भस्म हो जाये। वह अग्नि अपनी भीषणतम दाहकता से मुझे वीतराग और स्थितप्रज्ञ बना दे। मेरी सारी पृथकता का बोध उसमें जल कर नष्ट हो जाये।
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मेरी चेतना में मैं अकेला नहीं हूँ। यह सारी सृष्टि, सारा अनंत ब्रह्मांड मेरे साथ एक है। मैं सांसें लेता हूँ तो सारा ब्रह्मांड मेरे साथ सांसें लेता है। मैं जो भी अल्प आहार लेता हूँ, उसे स्वयं परमात्मा, वैश्वानर के रूप में ग्रहण कर सारी सृष्टि का भरण-पोषण करते हैं। मैं चलता हूँ तो स्वयं परमात्मा मेरे साथ चलते हैं। मैं कुछ भी नहीं करता, सब कुछ वे सच्चिदानंद कर रहे हैं। वे सच्चिदानंद मुझे स्वीकार करें। मेरे पास भेंट में देने के लिए अन्य कुछ भी नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ सितंबर २०२४
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यह कोई लेख नहीं, हृदय के भाव हैं, जो स्वतः ही व्यक्त हो रहे हैं।
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