हमारा स्वभाव ही हमारी प्रकृति है, जो हमारे पूर्वजन्मों के कर्मफलों का परिणाम है। हम प्रकृति से ऊपर उठें, और परमात्मा के साथ एक हों, तभी हमारा जीवन सार्थक है, अन्यथा नहीं ---
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"अपेक्षा" सदा दुःखदायी होती है, चाहे वह स्वयं से ही क्यों न हो। "आशा" और "तृष्णा" भी अपेक्षा का ही एक सूक्ष्म रूप है। आशा, निराशा और तृष्णा -- इन सब से ऊपर हमें उठना ही पड़ेगा। पूर्वजन्मों के संस्कारों से हमारे स्वभाव का निर्माण होता है। हमारा स्वभाव ही हमारी प्रकृति है। जैसी हमारी प्रकृति होगी, वैसा ही कार्य हमारे द्वारा संपादित होगा।
गीता में भगवान कहते हैं --
"सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३:३३॥
अर्थात् ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति पर ही जाते हैं, फिर इनमें (किसी का) निग्रह क्या करेगा।
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अपने उपास्य के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित होकर, नित्य नियमित उपासना से ही कुछ सार्थक कार्य हम कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। परमात्मा सब बंधनों से परे हैं, और उनमें ही समस्त स्वतन्त्रता है। हम उन के साथ एक हों, कहीं भी कोई भेद नहीं रहे, तभी हमारे सभी कार्य सार्थक होंगे।
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हमारी ज्ञान की बातों से, और उपदेशों से, जब तक ईश्वर की इच्छा नहीं हो, किसी को कोई भी लाभ नहीं पहुँचता है। यह समय की बर्बादी है। हर मनुष्य अपने अपने स्वभाव के अनुसार ही चलेगा, चाहे उसे कितने भी उपदेश दो। थोड़ी सी भी अपेक्षा, -- निराशाओं को ही जन्म देगी।
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यह सृष्टि, परमात्मा के संकल्प से प्रकृति के नियमों के अनुसार चल रही है। प्रकृति अपने नियमों का पालन बड़ी कठोरता से करती है। हमारी दृढ़ संकल्प शक्ति ही हमारी प्रार्थना हो। हम प्रकृति से ऊपर उठें, और परमात्मा के साथ एक हों, तभी हमारा जीवन सार्थक है, अन्यथा नहीं।
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ अप्रेल २०२१
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