भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप और आत्मतत्व को भूलना आत्महत्या है ...
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ब्रह्महत्या को सबसे बड़ा पाप माना गया है| मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से ब्रह्महत्या के दो अर्थ हैं ..... एक तो अपने स्वयं में अन्तस्थ परमात्मा को विस्मृत कर देना, और दूसरा है किसी ब्रह्मनिष्ठ महात्मा की ह्त्या कर देना| श्रुति भगवती कहती है कि अपने आत्मस्वरूप को विस्मृत कर देना उसका हनन यानि ह्त्या है| सांसारिक उपलब्धियों को हम अपनी महत्वाकांक्षा, लक्ष्य और दायित्व बना लेते हैं| पारिवारिक, सामाजिक व सामुदायिक सेवा कार्य भी हमें करने चाहियें क्योंकि इनसे पुण्य मिलता है, पर इनसे आत्म-साक्षात्कार नहीं होता|
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हमारे कूटस्थ ह्रदय में सच्चिदानन्द ब्रह्म यानि स्वयं परमात्मा बैठे हुए हैं| हम संसार की हर वस्तु की ओर ध्यान देते हैं पर परमात्मा की ओर नहीं| हम कहते हैं कि हमारा यह कर्तव्य बाकी है और वह कर्तव्य बाकी है पर सबसे बड़े कर्तव्य को भूल जाते हैं कि हमें ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना है| बच्चों की शिक्षा, बच्चों को काम पर लगाना, व्यापार की सँभाल करना आदि आदि में ही जीवन व्यतीत हो जाता है| जो लोग कहते हैं कि हमारा समय अभी तक नहीं आया है, उनका समय कभी आयेगा भी नहीं|
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भगवान को भूलना ब्रह्म-ह्त्या का पाप है| आजकल गुरु बनने और गुरु बनाने का भी खूब प्रचलन हो रहा है| गुरु पद पर हर कोई आसीन नहीं हो सकता| एक ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय और परमात्मा को उपलब्ध हुआ महात्मा ही गुरु हो सकता है जिसे अपने गुरु द्वारा अधिकार मिला हुआ हो| सार कि बात यह कि भगवान को भूलना ब्रह्महत्या है, और भगवान को भूलने वाले ब्रह्महत्या के दोषी हैं जो सबसे बड़ा पाप है|
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मनुष्य योनी में जीव का जन्म होता ही है पूर्ण समर्पण का पाठ सीखने के लिए| अन्य सब बातें इसी का विस्तार हैं| यह एक ही पाठ प्रकृति द्वारा निरंतर सिखाया जा रहा है| कोई इसे देरी से सीखता है, कोई शीघ्र| जो नहीं सीखता है वह इसे सीखने को बाध्य कर दिया जाता है| लोकयात्रा के लिए हमें जो देह रूपी वाहन दिया गया है वह नश्वर और अति अल्प क्षमता से संपन्न है| बुद्धि भी अति अल्प और सिमित है, जो कुबुद्धि ही है| चित्त नित-नूतन वासनाओं से भरा है| अहंकार महाभ्रमजाल में उलझाए हुए है| मन अति चंचल और लालची है| ये सब मिलकर इस मायाजाल में फँसाए हुए है जिसे तोड़ने का पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग ही नहीं है| हमें आता जाता कुछ नहीं है पर सब कुछ जानने का झूठा भ्रम पाल रखा है|
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इस लेख के अंत में कुछ विचार प्रस्तुत करता हूँ .......
माता पिता परमात्मा के अवतार हैं, उनका पूर्ण सम्मान करें|
प्रातः और सायं विधिवत साधना करनी चाहिए| निरंतर प्रभु का स्मरण रहे|
गीता के कम से कम पाँच श्लोकों का नित्य पाठ करना चाह्हिए|
कुसंग का सर्वदा त्याग|
कर्ताभाव से मुक्ति|
किसी भी प्रकार के नशे का त्याग|
सात्विक भोजन|
एकाग्रता से अनन्य भक्ति|
वैराग्य और एकांत का अभ्यास|
भगवान का अनन्य भक्त ही ब्राह्मण है| हर श्रद्धालु क्षत्रिय है|
सिर्फ नाम या वस्त्र बदलने से कोई विरक्त नहीं होता|
वैराग्य प्रभु कि कृपा से ही प्राप्त होता है|
गुरुलाभ भी भगवान की कृपा से ही प्राप्त होता है|
संन्यास मन की अवस्था है|
तामसिक साधनाओं से बचें|
साधना के फल का भगवान को अर्पण|
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आप सब को नमन ! ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
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ब्रह्महत्या को सबसे बड़ा पाप माना गया है| मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से ब्रह्महत्या के दो अर्थ हैं ..... एक तो अपने स्वयं में अन्तस्थ परमात्मा को विस्मृत कर देना, और दूसरा है किसी ब्रह्मनिष्ठ महात्मा की ह्त्या कर देना| श्रुति भगवती कहती है कि अपने आत्मस्वरूप को विस्मृत कर देना उसका हनन यानि ह्त्या है| सांसारिक उपलब्धियों को हम अपनी महत्वाकांक्षा, लक्ष्य और दायित्व बना लेते हैं| पारिवारिक, सामाजिक व सामुदायिक सेवा कार्य भी हमें करने चाहियें क्योंकि इनसे पुण्य मिलता है, पर इनसे आत्म-साक्षात्कार नहीं होता|
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हमारे कूटस्थ ह्रदय में सच्चिदानन्द ब्रह्म यानि स्वयं परमात्मा बैठे हुए हैं| हम संसार की हर वस्तु की ओर ध्यान देते हैं पर परमात्मा की ओर नहीं| हम कहते हैं कि हमारा यह कर्तव्य बाकी है और वह कर्तव्य बाकी है पर सबसे बड़े कर्तव्य को भूल जाते हैं कि हमें ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना है| बच्चों की शिक्षा, बच्चों को काम पर लगाना, व्यापार की सँभाल करना आदि आदि में ही जीवन व्यतीत हो जाता है| जो लोग कहते हैं कि हमारा समय अभी तक नहीं आया है, उनका समय कभी आयेगा भी नहीं|
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भगवान को भूलना ब्रह्म-ह्त्या का पाप है| आजकल गुरु बनने और गुरु बनाने का भी खूब प्रचलन हो रहा है| गुरु पद पर हर कोई आसीन नहीं हो सकता| एक ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय और परमात्मा को उपलब्ध हुआ महात्मा ही गुरु हो सकता है जिसे अपने गुरु द्वारा अधिकार मिला हुआ हो| सार कि बात यह कि भगवान को भूलना ब्रह्महत्या है, और भगवान को भूलने वाले ब्रह्महत्या के दोषी हैं जो सबसे बड़ा पाप है|
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मनुष्य योनी में जीव का जन्म होता ही है पूर्ण समर्पण का पाठ सीखने के लिए| अन्य सब बातें इसी का विस्तार हैं| यह एक ही पाठ प्रकृति द्वारा निरंतर सिखाया जा रहा है| कोई इसे देरी से सीखता है, कोई शीघ्र| जो नहीं सीखता है वह इसे सीखने को बाध्य कर दिया जाता है| लोकयात्रा के लिए हमें जो देह रूपी वाहन दिया गया है वह नश्वर और अति अल्प क्षमता से संपन्न है| बुद्धि भी अति अल्प और सिमित है, जो कुबुद्धि ही है| चित्त नित-नूतन वासनाओं से भरा है| अहंकार महाभ्रमजाल में उलझाए हुए है| मन अति चंचल और लालची है| ये सब मिलकर इस मायाजाल में फँसाए हुए है जिसे तोड़ने का पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग ही नहीं है| हमें आता जाता कुछ नहीं है पर सब कुछ जानने का झूठा भ्रम पाल रखा है|
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इस लेख के अंत में कुछ विचार प्रस्तुत करता हूँ .......
माता पिता परमात्मा के अवतार हैं, उनका पूर्ण सम्मान करें|
प्रातः और सायं विधिवत साधना करनी चाहिए| निरंतर प्रभु का स्मरण रहे|
गीता के कम से कम पाँच श्लोकों का नित्य पाठ करना चाह्हिए|
कुसंग का सर्वदा त्याग|
कर्ताभाव से मुक्ति|
किसी भी प्रकार के नशे का त्याग|
सात्विक भोजन|
एकाग्रता से अनन्य भक्ति|
वैराग्य और एकांत का अभ्यास|
भगवान का अनन्य भक्त ही ब्राह्मण है| हर श्रद्धालु क्षत्रिय है|
सिर्फ नाम या वस्त्र बदलने से कोई विरक्त नहीं होता|
वैराग्य प्रभु कि कृपा से ही प्राप्त होता है|
गुरुलाभ भी भगवान की कृपा से ही प्राप्त होता है|
संन्यास मन की अवस्था है|
तामसिक साधनाओं से बचें|
साधना के फल का भगवान को अर्पण|
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आप सब को नमन ! ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
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