"अक्षर" किसे कहते हैं? ---
.
शास्त्रार्थ करते हुए गार्गी ने याज्ञवल्क्य से पूछा कि आकाश किसमें ओतप्रोत हैं? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि कहा कि वह "अक्षर" में प्रतिष्ठित है। अक्षर का अर्थ है जो कभी क्षर नहीं होता। याज्ञवल्क्य ने अक्षर शब्द को बृहदारण्यक में बहुत अच्छी तरह से समझाया है। गीता में भी भगवान ने कहा है --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥"
अर्थात् - "इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥"
"अक्षर" अनंत और कामनारहित है। इसी लिए श्रुति भगवती हमें अनंत और कामना रहित होने को कहती है। अनंत और कामना रहित होकर ही हम अमृतमय और ब्रहमविद् हो सकते हैं। एक ध्वनि है जो पूरे ब्रह्मांड में गूँज रही है, पूरी सृष्टि उस से निर्मित हुई है। उस के साथ एक होकर ही हम सृष्टि के रहस्यों को समझते हुए, परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं।
ॐ तत्सत् !! गुरु ॐ !! जय गुरु !!
कृपा शंकर
८ सितंबर २०२१
No comments:
Post a Comment