Friday, 21 September 2018

पंचप्राणरूपी गणों के, ओंकार रूप में अधिपति भगवान श्रीगणेश को नमन !

पंचप्राणरूपी गणों के, ओंकार रूप में अधिपति भगवान श्रीगणेश को नमन !
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(गणपति का आधिदैविक स्वरूप) .....
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ॐ नमस्ते गणपतये ॥ त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि ॥ त्वमेव केवलं कर्तासि ॥ त्वमेव केवलं धर्तासि ॥ त्वमेव केवलं हर्तासि ॥ त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ॥ त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ॥१॥
(सत्य कथन) .....
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ऋतम् वच्मि ॥ सत्यं वच्मि ॥ २॥
(रक्षण के लिये प्रार्थना) .....
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अव त्वं माम्‌ ॥ अव वक्तारम् ॥ अव श्रोतारम् ॥ अव दातारम् ॥ अव धातारम् ॥ अवानूचानमव शिष्यम् ॥ अव पश्चात्तात्‌ ॥ अव पुरस्तात् ॥ अवोत्तरात्तात् ॥ अव दक्षिणात्तात् ॥ अव चोर्ध्वात्तात् ॥ अवाधरात्तात् ॥ सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३॥
(गणपतिजी का आध्यात्मिक स्वरूप) .....
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त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः ॥ त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः ॥ त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
(गणपति का स्वरूप) .....
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सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते ॥ सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः ॥ त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥५॥
त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् ॥ त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ॥ त्वं ब्रहमा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं‌ चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥
(गणेशविद्या / गणेश मन्त्र) .....
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गणादिन् पूर्वमुच्चार्य वर्णादिस्तदनन्तरम्। अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम् ॥ संहिता सन्धिः। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः। निचृद्‌गायत्रीछंदः गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥७॥
(गणेश गायत्री) .....
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एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥ ८ ॥
(गणेशरूप ध्यान).....
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एकदन्तं चतुर्हस्तम् पाशमं कुशधारिणम् ॥ रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्। रक्तम् लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥
रक्तगन्धानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्। भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्। आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥ एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥९॥
(अष्टनाम गणपति नमन) .....
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नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः ॥ १० ॥
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॥ फलश्रुति ॥ (सिर्फ हिंदी अनुवाद) :----
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इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा। ॥ ११॥
(विविध प्रयोग)
जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता। ॥ १२॥
(यज्ञ प्रयोग)
जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है। ॥ १३॥
(अन्य प्रयोग)
जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है। ॥ १४॥

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