Friday 21 September 2018

सत्संग सार .....

सत्संग सार .....
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भगवान की यह परम कृपा रही है कि संसार की इस अथाह भीड़ में से उन्होंने मुझे भी छाँट कर स्वयं के श्रीचरणों की सेवा में लगा दिया है| उनके श्री चरण ही मेरे आराध्य हैं, वे ही मेरी गति हैं और वे ही मेरे सर्वस्व हैं| मेरी कोई भी कामना नहीं है| अनेक लेख मुझ अकिंचन के माध्यम से लिखे जा चुके हैं, उनकी संख्या बढाने से अब कोई लाभ नहीं है| सब का सार यही है कि हमारे हृदय में कोई भी कामना नहीं होनी चाहिए| हमारा पूर्ण प्रेम और अभीप्सा सिर्फ परमात्मा के प्रति ही हो, कोई किसी भी तरह की कामना न रहे| कामनाएँ ही पाप का मूल हैं| स्वर्ग की कामना भी एक धोखा है जो अंततः नर्कगामी ही है|
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सूक्ष्म जगत के अनेक महात्माओं ने मुझे आशीर्वाद दिया है जिनको भौतिक रूप में मैनें कभी भी नहीं देखा| इस भौतिक विश्व में भी मुझे संत चरणों से प्यार है जो निरंतर आशीर्वाद देते रहते हैं| भगवान से मेरी एक ही प्रार्थना है कि किसी भी कामना का जन्म न हो और उन्हीं के श्रीचरणों में अंतःकरण लगा रहे|
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हम सब नित्यमुक्त हैं अतः किसी भी तरह की कोई मुक्ति हमें नहीं चाहिए| हमारा पूरा अंतःकरण यानि मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भगवान को समर्पित हो| भगवान के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप आप सब को भी मेरा दण्डवत् प्रणाम स्वीकार हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितम्बर २०१८
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पुनश्चः :-- एक आध्यात्मिक शक्ति भारतवर्ष का पुनरोत्थान कर रही है| भारतवर्ष फिर से अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त होगा| असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ पराभूत होंगी, ज्ञान का आलोक सर्वत्र व्याप्त होगा| भारतवर्ष में दस भी ऐसे महात्मा हैं जो परमात्मा को प्राप्त हैं, तो भारतवर्ष कभी नष्ट नहीं हो सकता|

2 comments:

  1. मेरे आदर्श अंशुमाली भुवनभास्कर मार्तंड आदित्य भगवान सूर्य हैं जो निरंतर अपने पथ पर गतिशील और प्रकाशमान हैं| उनकी गति कभी नहीं थमती| उनके पथ पर कहीं भी कोई अन्धकार का अवशेष नहीं मिलता| कौन क्या कहता है और क्या सोचता है इसकी परवाह न करते हुए मैं भी अपने पथ पर निरंतर अग्रसर गतिशील रहूँ| कूटस्थ में आत्म-सूर्य की ज्योतिषांज्योति सतत् प्रज्ज्वलित रहे, चैतन्य में कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार न रहे| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

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  2. चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध .... ये पाँच अवस्थाएँ होती हैं| आरम्भ की तीन अवस्थाएँ तमोगुण की अधिकता के कारण होती हैं| इनमें किसी भी व्यक्ति के लिए भगवान की भक्ति और ध्यान असम्भव है| ऐसे लोगों को संत-महात्मा भी तमोगुण से निकालने का प्रयास करते हैं| ऐसे लोगों का साथ भक्ति में बाधक है, अतः एक साधक को इनका कुसंग कभी भी नहीं करना चाहिए|

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