Tuesday 25 September 2018

हम भगवान को दान में क्या दे सकते हैं ? .....

हम भगवान को दान में क्या दे सकते हैं ? .....
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(जो मैं इस लेख में लिखने जा रहा हूँ यह सब संत-महात्माओं के सत्संग से प्राप्त ज्ञान है)
इस देह के साथ हमारा सम्बन्ध सिर्फ कर्मफलों का है, इसमें विगत जन्मों के कर्मफल भी आते हैं| इस जन्म में किये हुए सकाम कर्मफलों को भोगने के लिए फिर से देह धारण करनी होगी| इसमें हमारी इच्छा नहीं चलती, सब कुछ प्रकृति के नियमों के अनुसार होता है| हमें कर्म करने का अधिकार है पर उनके फलों को भोगने में हम स्वतंत्र नहीं हैं| उनका फल भुगतने के लिए प्रकृति हमें बाध्य कर देती है| हमारे सारे सगे-सम्बन्धी, माता-पिता, संतानें, शत्रु-मित्र ..... सब पूर्व जन्मों के कर्मफलों के आधार पर ही मिलते हैं| अतः जिस भी परिस्थिति में हम हैं वह अपने ही कर्मों का भोग है, अतः कोई पश्चात्ताप न करके इस दुश्चक्र से निकलने का प्रयास करते रहना चाहिए|
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इस निरंतर हो रहे जन्म-मरण के दुश्चक्र से मुक्ति के लिए सर्वप्रथम तो हमें परमात्मा को स्थायी रूप से अपने हृदय में बैठाना होगा, और परमप्रेम से उनको समर्पित होना होगा| फिर सतत् दीर्घकाल की साधना द्वारा कर्ताभाव और देहबोध से मुक्त होना होगा|
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इसके लिए चिंता की कोई बात नहीं है, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण का अभय वचन है .....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
अर्थात् तूँ मुझ में ही मन और चित्त लगा, मेरा ही भक्त यानि मेरा ही भजन पूजन करने वाला हो, तथा मुझे ही नमस्कार कर| इस प्रकार करता हुआ तूँ मुझ वासुदेव में अपने साधन और प्रयोजन को समर्पित कर के मुझे ही प्राप्त होगा| मैं तुझ से सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तूँ मेरा प्रिय है|
भगवान का इतना बड़ा आश्वासन है अतः भय किस बात का? हमें उन की शरण में तुरंत चले जाना चाहिए| महाभारत में अनेक स्थानों पर भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसी ही बातें सत्य की शपथ खाकर कही हैं|
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अब प्रश्न उठता है कि हम भगवान को दान में क्या दे सकते हैं? बात बड़ी अजीब सी है, जिस भगवान ने सब कुछ दिया है उन को हम दान में क्या दे सकते हैं? हाँ, एक चीज ऐसी अवश्य है जिसका दान भगवान भी हमारे से स्वीकार कर लेते हैं| यदि भगवान हमारा दिया हुआ दान स्वीकार कर लेते हैं तो उससे बड़ा पूण्य कोई दूसरा नहीं है| वह दान है ..... हमारी अपनी "जीवात्मरूपता" का यानी "जीवात्मभाव" का| इस जीवात्मरूपता के अतरिक्त हमारे पास अन्य कुछ है भी नहीं|
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भगवान का आदेश है .....
"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्| यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्||९:२७||"
अर्थात् हे कौन्तेय तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो|
भगवान ने इस से पूर्व यह भी कहा है ....
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
अर्थात् अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है, और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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हमारा हर कर्म ब्रह्मकर्म हो, हमारी चेतना ब्रह्ममय हो, हम जीवात्मभाव से मुक्त हों, यह भगवान को दिया हुआ दान है| हमारा अपना है ही क्या? हमारे हृदय में भगवान ही धड़क रहे हैं, हमारी सांसे भी वे ही ले रहे हैं, हमारी आँखों से भी वे ही देख रहे हैं, और हमारे पैरों से भी वे ही चल रहे हैं| यह पृथकता यानी जीवात्मभाव का बोध एक मायावी भ्रम और धोखा है|
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हे मनमोहन भगवान वासुदेव, हमारा मन तुम्हारे ही श्रीचरणों में ही समर्पित हो, तुम्हें छोड़कर यह मन अन्यत्र कहीं भी नहीं भागे| आप ही गुरु हो और आप ही मेरे परमशिव और मेरी परमगति हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ सितम्बर २०१८

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