Friday, 21 September 2018

"भूमा" शब्द का अर्थ :----

"भूमा" शब्द का अर्थ :----
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कामायनी महाकाव्य की इन पंक्तियों में जयशंकर प्रसाद ने "भूमा" शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ बड़ा दार्शनिक है .....
"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल,
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल |
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य यही "भूमा" का मधुमय दान |"
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"भूमा" शब्द सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद (७/२३/१) में आता है जिसका अर्थ होता है ..... सर्व, विराट, विशाल, अनंत, विभु, और सनातन|
" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति " |
भूमा तत्व में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में सुख नहीं है| जो भूमा है, व्यापक है वह सुख है| कम में सुख नहीं है|
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ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार से उनके शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा ..
" सुखं भगवो विजिज्ञास इति " |
जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है .....
" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति " |
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ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर 
१९ सितम्बर २०१८ 

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उपरोक्त लेख पर श्री अरुण उपाध्याय जी की टिप्पणी :--

यही साधना की पूर्णता भी है। मनुष्य का शरीर एक सीमा के भीतर है अर्थात् भूमि है। योग साधना की भी ७ भूमि कही गयी है (महानारायण उपनिषद्)। इस सीमित शरीर का जब विराट् से सम्बन्ध हो तो यह भूमा है।
पृथ्वी ग्रह अपनी परिधि के भीतर भूमि है। आकाश में उसके प्रभाव (
गुरुत्वाकर्षण आदि) का क्षेत्र भूमा है।
इसी प्रकार दो अन्य सीमित-विराट् जोड़े हैं जिनको एक मान कर व्याख्या की जाती है-
पुरुष - पूरुष, ईश-ईशा।
एक पुर में सीमित पुरुष है।
उसका मूल स्रोत या बनने के बाद अधिष्ठान पूरुष है जो उससे बड़ा है। पुरुष सूक्त तथा गीता में २-२ स्थान पर पूरुष शब्द का प्रयोग है। विश्व का पूर्ण स्रोत पूरुष है। उसके ४ भाग में १ भाग से ही पूरा विश्व बना है, यह पुरुष है।
पुरुष एवेदं सर्वं यदभूतं यच्च भाव्यं।
एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पूरुषः।
पादो अस्य भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।
ततो विराट् अजायत विराजो अधि पूरुषः। (पुरुष सूक्त)।
विश्व के हर विन्दु हृदय या चिदाकाश में रह कर सञ्चालन करने वाला इश या ईश्वर है-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्व भूतानि यन्त्रारूढ़ानि मायया।
(गीता १८/६१)
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गोसाईं।। (रामचरितमानस)
हर चिदाकाश को मिलाकर उसके ईश का विस्तार ईशा है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्।
यहां कई लोग ईशा का अर्थ ईश की तृतीया विभक्ति के साथ मानते हैं-अर्थात् ईश के द्वारा। पर यह वाक्य विश्व के प्रसंग में है।
यहाँ तीन शब्द हैं-ईश का विस्तार विश्व रूप में ईशा, जगत्, जगत्यां जगत्।
गीता अध्याय १८ के आरम्भ में इनको ब्रह्म, कर्म, यज्ञ कहा गया है।
सब कुछ ब्रह्म है-सर्वं खलु इदं ब्रह्म।
ब्रह्म में जहां कहीं गति है वह कर्म है। = जगत्।
जिस कर्म द्वारा चक्रीय क्रम में उत्पादन हो रहा है वह यज्ञ है (गीता, ३/१०)।= जगत्यां जगत्।


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