जिसका अहंकृतभाव नहीं है, और जिसकी बुद्धि कभी कहीं भी लिप्त नहीं होती, वह संसार के सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है। गीता में भगवान कहते हैं ---
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मारता है और न (पाप से) बँधता है॥
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जो कर्म का कर्ता होता है वही फल का भोक्ता भी होता है। लेकिन आत्मज्ञान के पश्चात हम शुभाशुभ कर्मों के कर्ता नहीं रहते। आत्मज्ञानी पुरुष का अहंकार अर्थात् जीवभाव ही समाप्त हो जाता है। तब उसकी बुद्धि विषयों में आसक्त, और गुण-दोषों से दूषित नहीं होती। वह पुरुष इन लोकों को मारकर भी, वास्तव में न तो किसी को मारता है, और न किसी बंधन में बंधता है।
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कर्तृत्वाभिमान के अभाव में मनुष्य को किसी भी कर्म का बन्धन नहीं हो सकता। वैसे ही जैसे एक हत्यारे व्यक्ति को तो मृत्युदण्ड दिया जाता है, और रणभूमि में शत्रु का संहार करने वाले वीर सैनिक का सम्मान किया जाता है। जिसका अहंकार पूर्णतया नष्ट हो जाता है, ऐसे ज्ञानी पुरुष को किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं होता।
He who has no pride, and whose intellect is unalloyed by attachment, even though he kill these people, yet he does not kill them, and his act does not bind him.
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ अगस्त २०२४
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