(उत्तर) : मैं जो लिखने जा रहा हूँ इसे गंभीरता से लें, हँसी में न उड़ायें। यदि आप इसे गंभीरता से लेंगे और निरंतर अभ्यास करेंगे तो आपका इतना अधिक कल्याण होगा, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
जहाँ तक हो सके दिन में अधिकांश समय "अर्ध खेचरी मुद्रा" में रहें। अपनी जीभ को ऊपर की ओर मोड़ कर के रखने का अभ्यास करें। जीभ ऊपर की मोड़ कर जितनी भी पीछे मुड़ सकती है, उतनी ही पीछे मोड़ कर और तालू से सटाकर रखें। इसका कई दिनों तक अभ्यास करना पड़ता है।
साथ-साथ मन ही मन भगवान के किसी प्रिय बीज मंत्र का भी जप करते रहें। गीता में भगवान श्रीकृष्ण मूर्धा में ओंकार का जप करने को कहते हैं, वह यही विधि है। इसका विकल्प है "रां" का जप। दोनों का फल एक ही है।
जो मानसिक जप आप करते हैं, आंतरिक रूप से वह कानों में सुनना चाहिए। लेकिन गलती से भी किसी अन्य को सुनाई नहीं देना चाहिए।
उज्जयी प्राणायाम का अभ्यास भी करना चाहिए, जो साधना में बहुत सहायक है।
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सिर्फ पानी पीते समय, भोजन करते समय, बात करते समय, और सोते समय ही जीभ को सीधी रखें। जहाँ तक हो सके नाक से ही सांस लें। हठयोग में अनेक विधियाँ हैं जिनसे नासिका सदा खुली रहती हैं। यदि कोई मेडिकल समस्या है तो किसी अच्छे ENT सर्जन से उपचार करवाएँ।
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उपरोक्त अभ्यास से बुरे विचार आने बंद हो जाएँगे, भगवान की स्मृति हर समय बनी रहेगी, और आप आनंद से भर जाएँगे। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ अगस्त २०२४
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