भगवान ही मेरे जीवन हैं, जिनके बिना मैं जीवित नहीं रह सकता; उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहिए ---
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भगवान की भक्ति -- भगवान की कृपा से ही होती है, निज प्रयासों से नहीं। पिछले कुछ दिनों में कुछ अपरिहार्य कारणों से ऐसे सांसारिक व्यवधान आए जिनसे जीवनचर्या एकदम अस्त-व्यस्त हो गई। ध्यान-साधना और भक्ति छूट सी गई। मन में बड़ी ग्लानि हुई। लेकिन मन को कैसे भी समझा लिया कि भगवान ही एकमात्र कर्ता और भोक्ता हैं; मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ।
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भगवान से कुछ भी नहीं चाहिए, लेकिन उनके बिना रह भी तो नहीं सकते। उनसे इतनी सी ही प्रार्थना है कि वे सदा मेरे समक्ष यानि मेरे दृष्टि-पथ में हर समय निरंतर रहें। यदि भूल से कभी कुछ उनसे मांग भी लूँ, तो वे मेरी इच्छा-पूर्ति कभी भी न करें। दिन में २४ घंटे, सप्ताह में सातों दिन, हर समय वे मेरी चेतना के केंद्र-बिन्दु रहते हुए मेरे समक्ष रहें। भगवान से उनकी उपस्थिती के अलावा और कुछ भी नहीं चाहिए।
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मेरे जैसे अकिंचन के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के ये पाँच श्लोक अर्थ सहित नित्य पठनीय है --
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६:२४॥"
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
८ सितंबर २०२३
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