(संशोधित व पुनर्प्रेषित). भस्म धारण .....
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विरक्त तपस्वी साधू-संत सर्दी-गर्मी से बचने के लिए भस्मलेपन करते हैं, जो अग्निस्नान है| यह वैराग्य का प्रतीक है| शैवागम के शास्त्रों में इसका बड़ा महत्त्व है| एक बार जब भगवान शिव समाधिस्थ थे तब मनोभव (मन में उत्पन्न होने वाला) मतिहीन कंदर्प (कामदेव) ने अन्य देवताओं के उकसाने पर सर्वव्यापी भगवान शिव पर कामवाण चलाया| भगवान शिव ने जब उस मनोज (कामदेव) पर दृष्टिपात किया तब कामदेव भगवान शिव की योगाग्नि से भस्म हो गया| कामदेव के बिना तो सृष्टि का विस्तार हो नहीं सकता अतः उसकी पत्नी रति बहुत विलाप करने लगी जिससे द्रवित होकर आशुतोष भगवान शिव ने मनोमय (कामदेव) की भस्म का अपनी देह पर लेप कर लिया, जिस से कामदेव जीवित हो उठा|
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भगवती माँ छिन्नमस्ता, कामदेव और उसकी पत्नी रति को भूमि पर पटक कर उनकी देह पर पर नृत्य करती है| फिर वे अपने ही हाथों से अपनी स्वयं की गर्दन काट लेती हैं| उनके धड़ से रक्त की तीन धाराएँ निकलती हैं जिनमें से मध्य की रक्तधारा का पान वे स्वयं करती हैं, और अन्य दो धाराओं का पान उनके दोनों ओर खड़ी वर्णिनी और डाकिनी शक्तियाँ करती हैं| इसका आध्यात्मिक अर्थ है कि साधक मेरी साधना से पूर्व कामदेव को अपने वश में करे और अहंकार से मुक्त हो|
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शैवागम तंत्रों में उत्तरा-सुषुम्ना को (आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य) "भ"कार शब्द से संबोधित किया गया है जिसमें सारी सिद्धियों का निवास है| योगमार्ग के साधक को अपनी चेतना निरंतर इसी उत्तरा सुषुम्ना में रखनी चाहिए और सहस्त्रार जो गुरुचरणों का प्रतीक है, पर ध्यान करना चाहिए| योगी के लिए आज्ञाचक्र ही उसका ह्रदय है| सहस्त्रार में स्थिति के पश्चात ही अन्य लोक भी दिखाई देने लगते हैं और अनेक सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं|
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विरक्त साधू भस्म धारण करते हैं इसका अर्थ है कि संसार में सब कुछ नश्वर है, केवल भस्म अर्थात् आत्मा ही अमर, अजर और अविनाशी है| अतएव, भस्म (आत्मा) ही सत्य है और शेष सब मिथ्या| भगवान शिव देह पर भस्म धारण करते हैं क्योंकि उन के लिए एक आत्मा को छोड़कर संसार के अन्य सब पदार्थ निरर्थक हैं| यह भस्म ही हमें यह याद दिलाती है कि हमारा जीवन क्षणिक है| भगवान शिव पर भस्म चढ़ाना एवं भस्म का त्रिपुंड लगाना कोटि महायज्ञ करने के सामान होता है| भगवन शिव अपनी भक्त-वत्सलता प्रकट करते हैं अपने भक्तों के चिताभस्म को अपने श्रीअंग का भूषण बनाकर|
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कुछ शैव सम्प्रदायों के साधुओं के अखाड़ों में विभूति-नारायण की पूजा होती है| विभूति-नारायण ..... अखाड़े के गुरुओं की देह से उतरी हुई भस्म का गोला ही होता है, जिसे वेदी पर रखकर पूजा जाता है| कुछ वैष्णव सम्प्रदायों के वैरागी साधू भी देह पर भस्म ही लगा कर रखते हैं| समस्त सृष्टि भगवान शिव का एक संकल्प मात्र यानि उनके मन का एक विचार ही है| भौतिक पदार्थों के अस्तित्व के पीछे एक ऊर्जा है, उस ऊर्जा के पीछे एक चैतन्य है, और वह परम चैतन्य ही भगवन शिव हैं| उनका न कोई आदि है और ना कोई अंत| सब कुछ उन्हीं में घटित हो रहा है और सब कुछ वे ही हैं| जीव की अंतिम परिणिति शिव है| प्रत्येक जीव का अंततः शिव बनना निश्चित है | उन्हें समझने के लिए जीव को स्वयं शिव होना पड़ता है | वे हम सब को ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दें!
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भस्म, त्रिपुंड और रुद्राक्ष माला .... ये तीनों भगवान शिव की साधना में साधक को धारण करनी चाहियें, इनके बिना पूरा फल नहीं मिलता|
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(भस्म सिर्फ देसी गाय के शुद्ध गोबर से ही बनती है| इसकी विधि यह है कि देसी गाय जब गोबर करे तब भूमि पर गिरने से पहिले ही उसे शुद्ध पात्र या बांस की टोकरी में एकत्र कर लें और स्वच्छ शुद्ध भूमि पर या बाँस की चटाई पर थाप कर कंडा (छाणा) बना कर सुखा दें| सूख जाने पर उन कंडों को इस तरह रखें कि उनके नीचे शुद्ध देसी घी का एक दीपक जलाया जा सके| उस दीपक की लौ से ही वे कंडे पूरी तरह जल जाने चाहियें| जब कंडे पूरी तरह जल जाएँ तब उन्हें एक साफ़ थैले में रखकर अच्छी तरह कूट कर साफ़ मलमल के कपडे में छान लें| कपड़छान हुई भस्म को किसी पात्र में इस तरह रख लें कि उसे सीलन नहीं लगे| भस्म तैयार है| पूजा से पूर्व माथे पर और अपनी गुरु परम्परानुसार देह के अन्य अंगों पर भस्म से त्रिपुंड लगाएँ|)
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विरक्त तपस्वी साधू-संत सर्दी-गर्मी से बचने के लिए भस्मलेपन करते हैं, जो अग्निस्नान है| यह वैराग्य का प्रतीक है| शैवागम के शास्त्रों में इसका बड़ा महत्त्व है| एक बार जब भगवान शिव समाधिस्थ थे तब मनोभव (मन में उत्पन्न होने वाला) मतिहीन कंदर्प (कामदेव) ने अन्य देवताओं के उकसाने पर सर्वव्यापी भगवान शिव पर कामवाण चलाया| भगवान शिव ने जब उस मनोज (कामदेव) पर दृष्टिपात किया तब कामदेव भगवान शिव की योगाग्नि से भस्म हो गया| कामदेव के बिना तो सृष्टि का विस्तार हो नहीं सकता अतः उसकी पत्नी रति बहुत विलाप करने लगी जिससे द्रवित होकर आशुतोष भगवान शिव ने मनोमय (कामदेव) की भस्म का अपनी देह पर लेप कर लिया, जिस से कामदेव जीवित हो उठा|
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भगवती माँ छिन्नमस्ता, कामदेव और उसकी पत्नी रति को भूमि पर पटक कर उनकी देह पर पर नृत्य करती है| फिर वे अपने ही हाथों से अपनी स्वयं की गर्दन काट लेती हैं| उनके धड़ से रक्त की तीन धाराएँ निकलती हैं जिनमें से मध्य की रक्तधारा का पान वे स्वयं करती हैं, और अन्य दो धाराओं का पान उनके दोनों ओर खड़ी वर्णिनी और डाकिनी शक्तियाँ करती हैं| इसका आध्यात्मिक अर्थ है कि साधक मेरी साधना से पूर्व कामदेव को अपने वश में करे और अहंकार से मुक्त हो|
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शैवागम तंत्रों में उत्तरा-सुषुम्ना को (आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य) "भ"कार शब्द से संबोधित किया गया है जिसमें सारी सिद्धियों का निवास है| योगमार्ग के साधक को अपनी चेतना निरंतर इसी उत्तरा सुषुम्ना में रखनी चाहिए और सहस्त्रार जो गुरुचरणों का प्रतीक है, पर ध्यान करना चाहिए| योगी के लिए आज्ञाचक्र ही उसका ह्रदय है| सहस्त्रार में स्थिति के पश्चात ही अन्य लोक भी दिखाई देने लगते हैं और अनेक सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं|
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विरक्त साधू भस्म धारण करते हैं इसका अर्थ है कि संसार में सब कुछ नश्वर है, केवल भस्म अर्थात् आत्मा ही अमर, अजर और अविनाशी है| अतएव, भस्म (आत्मा) ही सत्य है और शेष सब मिथ्या| भगवान शिव देह पर भस्म धारण करते हैं क्योंकि उन के लिए एक आत्मा को छोड़कर संसार के अन्य सब पदार्थ निरर्थक हैं| यह भस्म ही हमें यह याद दिलाती है कि हमारा जीवन क्षणिक है| भगवान शिव पर भस्म चढ़ाना एवं भस्म का त्रिपुंड लगाना कोटि महायज्ञ करने के सामान होता है| भगवन शिव अपनी भक्त-वत्सलता प्रकट करते हैं अपने भक्तों के चिताभस्म को अपने श्रीअंग का भूषण बनाकर|
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कुछ शैव सम्प्रदायों के साधुओं के अखाड़ों में विभूति-नारायण की पूजा होती है| विभूति-नारायण ..... अखाड़े के गुरुओं की देह से उतरी हुई भस्म का गोला ही होता है, जिसे वेदी पर रखकर पूजा जाता है| कुछ वैष्णव सम्प्रदायों के वैरागी साधू भी देह पर भस्म ही लगा कर रखते हैं| समस्त सृष्टि भगवान शिव का एक संकल्प मात्र यानि उनके मन का एक विचार ही है| भौतिक पदार्थों के अस्तित्व के पीछे एक ऊर्जा है, उस ऊर्जा के पीछे एक चैतन्य है, और वह परम चैतन्य ही भगवन शिव हैं| उनका न कोई आदि है और ना कोई अंत| सब कुछ उन्हीं में घटित हो रहा है और सब कुछ वे ही हैं| जीव की अंतिम परिणिति शिव है| प्रत्येक जीव का अंततः शिव बनना निश्चित है | उन्हें समझने के लिए जीव को स्वयं शिव होना पड़ता है | वे हम सब को ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दें!
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भस्म, त्रिपुंड और रुद्राक्ष माला .... ये तीनों भगवान शिव की साधना में साधक को धारण करनी चाहियें, इनके बिना पूरा फल नहीं मिलता|
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(भस्म सिर्फ देसी गाय के शुद्ध गोबर से ही बनती है| इसकी विधि यह है कि देसी गाय जब गोबर करे तब भूमि पर गिरने से पहिले ही उसे शुद्ध पात्र या बांस की टोकरी में एकत्र कर लें और स्वच्छ शुद्ध भूमि पर या बाँस की चटाई पर थाप कर कंडा (छाणा) बना कर सुखा दें| सूख जाने पर उन कंडों को इस तरह रखें कि उनके नीचे शुद्ध देसी घी का एक दीपक जलाया जा सके| उस दीपक की लौ से ही वे कंडे पूरी तरह जल जाने चाहियें| जब कंडे पूरी तरह जल जाएँ तब उन्हें एक साफ़ थैले में रखकर अच्छी तरह कूट कर साफ़ मलमल के कपडे में छान लें| कपड़छान हुई भस्म को किसी पात्र में इस तरह रख लें कि उसे सीलन नहीं लगे| भस्म तैयार है| पूजा से पूर्व माथे पर और अपनी गुरु परम्परानुसार देह के अन्य अंगों पर भस्म से त्रिपुंड लगाएँ|)
शिवमस्तु ! ॐ शिव ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०१३
कृपा शंकर
३१ मई २०१३
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