भक्त होने का या भक्ति करने का भ्रम एक धोखा है। भगवान अपनी भक्ति स्वयं करते हैं। भगवान एक महासागर हैं और हम एक जल की बूँद। जल की बूँद भी महासागर से मिलकर महासागर हो जाती है। परमशिव में विलीन होकर, हम भी परमशिव हैं।
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परमात्मा कोई वस्तु या कोई व्यक्ति नहीं है जो आकाश से उतर कर आयेगा, और कहेगा कि भक्त, वर माँग। वह कोई सिंहासन पर बैठा हुआ दयालू या क्रोधी व्यक्ति भी नहीं है जो दंडित या पुरस्कृत करता है। वह हमारी स्वयं की ही उच्चतम चेतना है। यह अनुभूति का विषय है।
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मैं किसी की भक्ति नहीं करता। किसकी भक्ति करूँ? अन्य है ही कौन? मैं किसे पाने के लिए तड़प रहा हूँ? यह अतृप्त प्यास और असीम वेदना किसके लिए है? मेरे से अन्य तो कोई भी नहीं है। अंततः मैं भी नहीं हूँ। एक मात्र अस्तित्व उन्हीं का है।
गीता में भगवान कहते हैं ---
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता॥
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"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
अर्थात् -- (परमात्मा की प्राप्ति रूप) जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता, (परमात्मा प्राप्ति रूप) जिस अवस्था में स्थित (योगी) बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
४ जनवरी २०२२
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