Friday 2 June 2017

"यथा ब्रज गोपिकानाम्" .....

"यथा ब्रज गोपिकानाम्" .....
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भगवान को वैसे ही प्रेम करो जैसे ब्रज की गोपियों ने किया था|
कभी कभी ईश्वर से विछोह भी अच्छा है क्योंकि उसमें मिलने का आनंद समाया होता है| मिलने में वियोग की पीड़ा भी होती है| पर वह स्थिति सब से अच्छी है जहाँ न कोई मिलना है और न कोई विछुड़ना| क्योंकि जो मिलते और विछुड़ते हैं वे तो भगवान स्वयं ही हैं| उनसे पृथक तो कुछ है ही नहीं|
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जब हम एक अति उत्तुंग पर्वत शिखर से नीचे की गहराई में झाँकते हैं तो वह बड़ी डरावनी गहराई भी हमारे में झाँकती है| ऐसे ही जब हम नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हैं तो वह पर्वत भी हमें घूरता है| जिसकी आँखों में हम देखते हैं, वे आँखें भी हमें देखती हैं| जिससे भी हम प्रेम या घृणा करते हैं, उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर हमें ही प्राप्त होती है|

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वैसे ही जब हम प्रभु को प्रेम करते हैं तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर हमें ही प्राप्त होता है| वह प्रेम हम स्वयं ही हैं| प्रभु में हम समर्पण करते हैं तो प्रभु भी हमें समर्पण करते हैं| जब हम उनके शिवत्व में विलीन हो जाते हैं तो हम में भी वह शिवत्व विलीन हो जाता है और हम स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हैं| जहाँ ना कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, ना कोई मिलना-बिछुड़ना, जहाँ कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता हम स्वयं ही हैं|
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हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है|
ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
03 जून 2014

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