Sunday, 9 March 2025

भगवान दक्षिणामूर्ति ---

 भगवान को पाने के लिए ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की आवश्यकता होती है। इनसे अज्ञान रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, और आत्मज्ञान रूपी दीप प्रज्वलित हो उठता है। आत्म-तत्व' का बोध हमें सच्चिदानंदमय बना देता है। ऋषियों ने इसके लिए अनेक साधनाएँ बताई हैं, जिनमें से एक 'दक्षिणामुखी शिव' की उपासना भी है। इससे समस्त भव-बन्धन और पाप नष्ट हो जाते हैं। साधक 'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है।

गुरुओं के गुरु भगवान शिव को दक्षिणामूर्ति कहा गया है जो वेद और तंत्र का सम्पूर्ण ज्ञान अपने भक्तों को प्रदान करते हैं। इनके दो रूप हैं -- एक में तो वे बरगद के वृक्ष के नीचे दक्षिण दिशा में मुंह कर के एक विशिष्ट मुद्रा में बैठे हैं; दूसरे में वे कैलाश पर्वत के ऊपर उसी मुद्रा में दक्षिण दिशा में ही मुंह कर के बैठे हैं।
वे समस्त ज्ञान के प्रदाता हैं, इसलिए उनका विग्रह कैसा भी हो, हमारी रुचि उनके विग्रह में नहीं, उनसे शिव-तत्व का ज्ञान पाने की ही होनी चाहिए। शिव-तत्व ही आत्म-तत्व है, और यही ब्रह्म-तत्व है। यहाँ पाने को कुछ नहीं है, केवल स्वयं का शिव में पूर्ण समर्पण है।
यह साधना कृष्ण-यजुर्वेदीय परंपरा में आती है, जिस में शौनक आदि ऋषियों और ऋषि मार्कन्डेय के मध्य प्रश्नोत्तरों के रूप में सारी बातें समझाई गई हैं। कुछ मंत्रों का भी प्रयोग है इसलिए यह साधना सिद्ध गुरु से ही सीखनी चाहिए; किसी पुस्तक से पढ़कर नहीं। ९ मार्च २०२३

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