Thursday 5 August 2021

समभाव में स्थिति ही योगसिद्धि है ---

 

समभाव में स्थिति ही योगसिद्धि है ---
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नित्य नियमित ध्यान साधना करते-करते हम राग-द्वेष से ऊपर उठ जाते हैं, और समभाव में हमारी स्थिति होने लगती है। संकल्प-शक्ति या इच्छा-शक्ति द्वारा यह संभव नहीं है। यह समभाव में स्थिति ही योग-सिद्धि है। गीता में भगवान कहते हैं --
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
अर्थात् - "हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है॥"
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हमारा हर कर्म ईश्वर को समर्पित हो। "ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों" -- ऐसा भाव तो आना ही नहीं चाहिए। साधना में साधक और साध्य एक हो जाते हैं। अंतःकरण शुद्ध होने से ज्ञान-प्राप्ति की सिद्धि होती है। ज्ञानप्राप्ति का न होना असिद्धि है। ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर कर्म (साधना) करते रहना चाहिए। यह जो सिद्धि-असिद्धि में समत्व है, इसीको योग कहते हैं।
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यदि यह शरीर, ईश्वर की साधना में हमारा साथ नहीं देता तो ऐसा शरीर छूट भी जाये तो कोई पछतावा नहीं होना चाहिए। किसी के भी प्रति दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। बाहर से अच्छी-अच्छी बातें कर किसी का अनिष्ट-चिंतन द्वेष है, और मीठी-मीठी बातें कर किसी को हानि पहुंचाना छल है, जो एक अक्षम्य अपराध है।
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अंतिम बात जो कहना चाहता हूँ, वह है "असंगत्व"। साधना में हम अकेले हैं, गुरु और परमात्मा दोनों ही हमारे साथ एक हैं, कोई भी अन्य नहीं है। गीता में भगवान की आज्ञानुसार असंग रूपी अस्त्र से इस संसार रूपी वृक्ष की जड़ों को काट दें --
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
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"सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं। निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥"
ॐ तत्सत् !!
१७ जुलाई २०२१

1 comment:

  1. मेरे जैसे लोग जो कभी साहस नहीं जुटा पाये, उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। वे अपनी अभीप्सा को बनाये रखें। उन्हें फिर अवसर मिलेगा। आध्यात्मिक यात्रा उन साहसी वीर पथिकों के लिए है जो अपना सब कुछ दांव पर लगा सकते हैं। लाभ-हानि की गणना करने वाले और कर्तव्य-अकर्तव्य की ऊहापोह में खोये रहने वाले कापुरुष इस मार्ग पर नहीं चल सकते। यह उन वीरों का मार्ग है जो अपनी इन्द्रियों पर विजय पा सकते हैं, और अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक परिस्थितियों से कोई समझौता नहीं करते। मैं ऐसे बहुत लोगों को जानता हूँ जो बहुत भले सज्जन हैं, उनमें भगवान को पाने की अभीप्सा भी है, लेकिन घर-परिवार के लोगों की नकारात्मक सोच, गलत माँ-बाप के यहाँ जन्म, गलत पारिवारिक संस्कार और गलत वातावरण -- उन्हें कोई साधन-भजन नहीं करने देता। घर-परिवार के मोह के कारण ऐसे जिज्ञासु जीवन में कुछ उपलब्ध नहीं कर पाते। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में निश्चित ही उन्हें आध्यात्मिक प्रगति का अवसर मिलेगा।
    ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
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    पुनश्च:
    हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम। कभी भूल कर भी निराश न हों। परिस्थितियाँ बहुत तेजी से बदल रही हैं। नीरज की एक कविता की ये चार पंक्तियाँ यही भाव व्यक्त करती हैं--
    "रावी की रवानी बदलेगी, सतलज का मुहाना बदलेगा
    गर शौक में तेरे जोश रहा, तस्बीह का दाना बदलेगा!
    तू खुद तो बदल, तू खुद तो बदल, बदलेगा ज़माना बदलेगा!
    गंगा की कसम, जमना की कसम, यह ताना बाना बदलेगा" (नीरज)

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