Thursday 5 August 2021

यह परमशिव की स्वतंत्र इच्छा है कि वे स्वयं को कैसे व्यक्त करें ---

 

यह परमशिव की स्वतंत्र इच्छा है कि वे स्वयं को कैसे व्यक्त करें। यह समस्त सृष्टि उन्हीं की अभिव्यक्ति है। उनके ही संकल्प से ऊर्जा-खंडों के विभिन्न आयाम, क्रिया, और प्राण आदि की उत्पत्ति हुई जिन्होनें इस सृष्टि का निर्माण किया। सम्पूर्ण सृष्टि में व उससे परे जो कुछ भी है, वह परमशिव का ही रूप है। परमशिव ही कूटस्थ हैं, वे ही पारब्रह्म परमात्मा हैं, और वे ही नारायण हैं। मैं स्वयं को उनसे पृथक नहीं पाता। मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं। उनकी ही कृपा से यह चंचल मन अब उन्हीं की स्मृति और प्रेम में रत रहने लगा है। अन्यत्र कहीं भी भागता है, तो बेचैन होकर तड़पने लगता है। लौटकर पुनश्च उनके चरणों में आश्रय पाकर ही प्रसन्न होता है। परमशिव भी यह बताना चाहते हैं कि मैं उनसे पृथक नहीं, उनके साथ एक हूँ। कहीं कोई भेद नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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हमें अपनी पहिचान न तो स्वयं की बुराइयों से, और न ही अच्छाइयों (यदि हों तो) से करनी चाहिए। हमारे में लाखों बुराइयाँ और अच्छाइयाँ होंगी, वे सब, और हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व उन को समर्पित हो। हम उन के साथ एक और उनकी पूर्णता हैं। मेरी अनुभूति तो यह है कि सहस्त्रार ही उनके चरण-कमल हैं, और सहस्त्रार में स्थिति ही उनके चरण-कमलों में आश्रय है। अपनी चेतना को सदा उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य) में ही रखें। वहीं रहते हुए साक्षीभाव से सारे कार्य संपादित करें। सुषुम्ना के चक्रों में क्रिया-साधना भी उत्तरा-सुषुम्ना में रहते हुये साक्षीभाव से ही करें। उत्तरा-सुषुम्ना ज्ञान-क्षेत्र है, और सारी सिद्धियों का निवासस्थान है। यह भी हमारा स्थायी निवास नहीं है। यहाँ से भी पतन हो सकता है। इससे आगे का क्षेत्र परा है। परा से भी आगे की भूमियाँ हैं, जिनको हमें पार करना है। असली साधना तो आज्ञाचक्र के भेदन के पश्चात ही शुरू होती है। परमशिव ही कूटस्थ रूप में गुरु हैं। अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें दें, वे निश्चित रूप से हमें कृत-कृत्य करेंगे।
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ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं, भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥"
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
"ऊँ सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मां विद्विषावहै॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
२० जुलाई २०२१

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