Thursday 5 August 2021

अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही संसार-सागर को पार करना है ---

स्थितप्रज्ञता यानि अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही संसार-सागर को पार करना है। संसार-सागर एक मृगतृष्णा मात्र है, कोई वास्तविकता नहीं।

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परमात्मा का ध्यान करते करते जब परमात्मा से परमप्रेम और आनंद की अनुभूति होने लगे, जब सारे आकाशों की सीमाओं से परे ज्योतिर्मय अनंत असीम विस्तार के साथ एकत्व की अनुभूति होने लगे, जब पृष्ठभूमि में निरंतर प्रणवाक्षर का श्रवण होने लेगे, जब व्यक्तिगत चेतना एकाएक विस्तृत होकर अनन्त चेतना में समाने के लिए उतावली हो जाए, तथा बार बार इसे ही करने में आनन्द आने लगे, तब समझना चाहिए कि परमात्मा की कृपा हो रही है, और सारे भेद समाप्त हो रहे हैं।
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तब यदि हो सके तो उसी समय तुरंत विरक्त होकर एकांत में रहकर भगवान का ध्यान करना चाहिए। क्योंकि विक्षेप का खतरा टला नहीं है, पता नहीं माया का आक्रमण फिर कब हो जाये। स्थितप्रज्ञता बहुत बड़ी उपलब्धि है, कहीं हाथ से छूट न जाये। स्थितप्रज्ञ कौन है? भगवान कहते हैं --
"प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२:५५॥"
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५७॥"
"यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५८॥"
अर्थात् - श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है, और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है, उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
जो सर्वत्र अति स्नेह से रहित हुआ उन शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त कर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित (स्थिर) है॥
कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है॥
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हे प्रभु, मेरे पूरे अन्तःकरण को स्वीकार करो। आपने सदा मेरे रक्षा की है, आगे भी करते रहना।
यह मेरा भगवान के साथ एक सत्संग था। अच्छा न लगे तो मत पढ़ना। मुझे भी अमित्र कर देना। बड़ी कृपा होगी। ॐ तत्सत् !!
१२ जुलाई २०२१

1 comment:

  1. ज्ञान, विद्याएँ, शास्त्र और साधनायें अनंत हैं, लेकिन उसी अनुपात में बुद्धि अति सीमित व अत्यल्प है। कुछ भी समझ में नहीं आता, इसलिए समझने का प्रयास ही छोड़ दिया है। सिर्फ एक ही शाश्वत सत्य पूर्णतः स्पष्ट है कि -- भगवान हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, यहीं पर हैं, और सर्वत्र हैं; मैं उनके हृदय में हूँ, और वे मेरे हृदय में हैं -- इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं पता। मैं उनके साथ पूरी तरह संतुष्ट और प्रसन्न हूँ, मुझे और कुछ भी नहीं चाहिये। सभी मित्रों को नमस्कार !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!॥
    कृपा शंकर
    १४ जुलाई २०२१

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