सं.रा.अमेरिका को कायराना तरीके से अचानक ही अफगानिस्तान छोडकर भागने के निर्णय पर भविष्य में बहुत अधिक पछताना पड़ेगा। यह USA के लिए एक आत्मघाती निर्णय था, जिस की प्रतिक्रिया USA में आरंभ भी हो गई है। भारत को इससे बहुत अधिक हानि पहुँचने की संभावना है। यह पूरी तरह भारत के हितों के विरुद्ध तो है ही, अमेरिकी हितों के भी विरुद्ध था। अब अफगानिस्तान में धीरे-धीरे बापस तालिबानी मुजाहिदीन सत्ता में आ गये तो वे पूर्ववत भारत के शत्रु ही होंगे।
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२४ दिसंबर १९७९ को जब पूर्व सोवियत संघ ने पूरी तैयारी कर के ताजिकिस्तान के मार्ग से अफगानिस्तान पर आक्रमण कर, बिना किसी विरोध के पूरे अफगानिस्तान पर पूर्ण अधिकार कर लिया था, वह पूरी तरह से भारत के हित में था। सोवियत संघ को मध्य एशिया के देशों पर शासन करने का ७२ वर्षों का अनुभव था। उनकी जकड़ अफगानिस्तान पर इतनी मज़बूत थी कि वे कुछ वर्षों में अफगानिस्तान को पूरी तरह अपने ही रंग में ढाल लेते। अफगानिस्तान में डॉ.नजीबुल्लाह जैसे राष्ट्रपति -- भारत के भक्त थे। एक बार अफगानिस्तान जैसे कट्टर इस्लामी देश में उन्होने जन्माष्टमी का त्योहार मनाकर पूरे विश्व के सभी हिंदुओं को शुभ कामनाएँ भेजी थीं। यह भारत को दिया गया मित्रता का एक संदेश था।
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किसी भी देश की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और विदेशनीति -- शत-प्रतिशत अपने देश के हितों पर आधारित होती है, उसमें भावुकता का या निजी विचारधारा का कोई स्थान नहीं होता। लेकिन दुर्भाग्य से भारत की तत्कालीन केंद्र सरकार ने राष्ट्रहित की उपेक्षा की, और स्वयं के व्यक्तिगत अहंकार और झूठे आदर्श का परिचय दिया। विभिन्न समाचार पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये उस समय के समाचारों के अनुसार सोवियत संघ की इच्छा पाकिस्तान को भी विखंडित करने की थी, जिसके लिए उन्हें भारत का सहयोग चाहिए था। सोवियत संघ की सेना अफगानिस्तान में वहाँ की साम्यवादी सरकार और अफगान मुजाहिदीनों के मध्य चल रहे गृहयुद्ध में Soviet-Afghan Friendship Treaty of 1978 के प्रावधानों के अंतर्गत साम्यवादी अफगान सरकार के समर्थन में आई थी। उनका युद्ध अफगान मुजाहिदीनों से था, जिन को अस्त्र-शस्त्र और धन पाकिस्तान से मिलता था। पाकिस्तान को यह धन USA से प्राप्त होता था। अतः सोवियत संघ के सामने अपनी विजय के लिए एक ही मार्ग बचा था, और वह था पाकिस्तान के टुकड़े-टुकड़े करना। उनकी योजना थी कि सोवियत संघ पाकिस्तान पर पश्चिमी दिशा से आक्रमण करे, और भारत पूर्वी दिशा से। यह पाकिस्तान को तोड़ने का एक दुर्लभ अवसर था जिसे हमने गंवा दिया। तत्कालीन भारत सरकार ने पाकिस्तान को सचेत कर दिया और पाकिस्तान बीच में USA को ले आया।
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इस से भारत के हितों की तो बली चढ़ी ही, देश को भी बहुत अधिक हानि हुई। बड़ी कठिनाई से पाकिस्तान में खड़े किए गये भारतीय गुप्तचरों के तंत्र को भारत सरकार ने ही बंद कर दिया। पाकिस्तान ने भी अपने यहाँ पर स्थित भारत के गुप्तचरों का पता लगा लिया और सबकी हत्या कर दी। लेकिन पाकिस्तान ने भारत में जासूसी बंद नहीं की।
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इससे तत्कालीन प्रधानमंत्री को लाभ तो यही हुआ कि जब वे अपनी मृत्यु शैय्या पर थे, तब पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़िआ-उल-हक़ ने व्यक्तिगत रूप से मुंबई में उनके घर पर आकर उनके घर में उनकी रुग्ण शैय्या पर ही उन को पाकिस्तान का सर्वोच्च्च नागरिक सम्मान "निशान-ए-पाकिस्तान" प्रदान किया। नीचे दी हुई लिंक पर उस समय का एक समाचार पढ़ सकते हैं।
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अब दो-तीन दिन पूर्व ही अफगानिस्तान में अपने किले बगराम एयरबेस पर लगभग २० वर्ष तक अधिकार रखने के पश्चात अमेरिकी सैनिक रात के अंधेरे में अपनी गाडियाँ और हथियार ऐसे ही लावारिस छोड़कर भाग गये। उन्होंने अफगान सुरक्षा बलों को भी इसके बारे में नहीं बताया। अब तो स्थानीय बदमाश लोगों ने वह सब लूट लिया है। अब USA को स्वयं पर शर्मिंदगी और आत्मग्लानि का सामना करना पड़ रहा है। यही नहीं उसे अब डर सता रहा है कि अफगानिस्तान में एक बार फिर से गृहयुद्ध और आतंकवाद आरंभ हो जाएगा। तालिबान के सामने अफगान सुरक्षा बल बिना लड़े ही घुटने टेक रहे हैं। हैं। यह सब केवल इसलिए हुआ कि बाइडेन प्रशासन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी में आवश्यकता से अधिक शीघ्रता दिखा दी।
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अफगान जनता बहुत दुखी है। भविष्य में अफगानिस्तान की जनता अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन को अफगानिस्तान में लोगों की हत्या, महिलाओं के दमन और मानवीय संकट के लिए जिम्मेदार ठहराएँगी। पाकिस्तानी मदरसों में पढे तालिबानी लगातार अफगानिस्तान पहुँच रहे हैं। हो सकता है वहाँ एक और गृहयुद्ध प्रारम्भ हो जाये।
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भारत ने बहुत अधिक धन वहाँ के विकास कार्यों में लगा रखा है, कहीं वह डूब नहीं जाये! मैं निष्पक्ष रूप से विवेचना करता हूँ तो पाता हूँ कि तालिबानों की अपेक्षा वहाँ रूस का अधिकार ही अधिक अच्छा था, जो भारत के पूर्ण हित में था।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
७ जुलाई २०२१
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