Thursday 5 August 2021

आध्यात्मिक दृष्टि से एकमात्र सत्य केवल परमात्मा हैं, उनके "कैवल्य" के बोध में स्वयं को समर्पित कीजिये ---

आध्यात्मिक दृष्टि से एकमात्र सत्य केवल परमात्मा हैं, उनके "कैवल्य" के बोध में स्वयं को समर्पित कीजिये ---

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एकमात्र सत्य केवल परमात्मा है। हमारी सारी आशायें, अपेक्षायें, आकांक्षायें व पृथकता का बोध -- हमारी विवेकाग्नि में भस्म हो जाये। विवेक की उस अग्नि को अपने अंतर में हमें स्वयं को ही प्रज्ज्वलित करना होगा। हमारा पूर्ण समर्पण "कैवल्य" के बोध व चेतना में ही हो। यही अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है। यही गीता के उपदेश का सार है। जो इस संकेत को समझ कर उस का आचरण करेंगे, उनका निश्चित रूप से कल्याण होगा। सारा मार्गदर्शन श्रीमद्भगवद्गीता व उपनिषदों में है। ॐ ॐ ॐ !!
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जो स्वयं को हिन्दू मानते हैं, और जो चाहते हैं कि भारत से असत्य का अंधकार दूर हो, उन्हें अपनी चेतना का उत्थान करना होगा। उन्हें एक सामान्य मनुष्य की चेतना से ऊपर उठकर स्वयं को देवत्व में स्थापित करना होगा। सिर्फ बातों से काम नहीं होगा, नित्य नियमित साधना करनी पड़ेगी, और परमात्मा को अपने जीवन का केंद्र बिन्दु बनाना पड़ेगा। आप यह नश्वर शरीर नहीं, शाश्वत अजर अमर आत्मा हैं, और एक देवता के रूप में इस पृथ्वी पर परमात्मा का कार्य करने के लिए आये हैं। आपको कोई पराजित नहीं कर सकता। इस वेद-वाक्य को याद रखो -- "अहं इन्द्रो न पराजिग्ये" अर्थात मैं इंद्र हूँ, मेरा पराभव नहीं हो सकता। आप वास्तव में देवताओं के राजा इंद्र है, जिसे कोई पराजित नहीं कर सकता। आप इस पृथ्वी देवताओं के राजा हैं, उन्हीं की तरह सोचिए, और उन्हीं की तरह आचरण कीजिये।
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शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः -- कृष्ण यजुर्वेद शाखा के श्वेताश्वतरोपनिषद में सनातन हिन्दू धर्म का सारा साधना पक्ष और ज्ञानयोग दिया हुआ है। इस उपनिषद् के छओं अध्यायों में जगत के मूल कारण, ॐकार-साधना, परमात्मतत्त्व से साक्षात्कार, ध्यानयोग, प्राणायाम, जगत की उत्पत्ति, जगत के संचालन और विलय का कारण, विद्या-अविद्या, जीव की नाना योनियों से मुक्ति के उपाय, और परमात्मा की सर्वव्यापकता का वर्णन किया गया है। सारी आध्यात्मिक साधनाएँ यहीं से आरम्भ होती हैं। यह उपनिषद् अपने दूसरे अध्याय में हम सब को अमृत पुत्र कहता है। हम सब परमात्मा के अमृतपुत्र हैं।
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जो भी शिक्षा हमें जन्म से पापी होना सिखाती है वह वेदविरुद्ध होने के कारण विष के समान त्याज्य है। सिर्फ वेद ही प्रमाण हैं। कोई भी पौराणिक या आगम शास्त्रों की शिक्षा भी यदि वेदविरुद्ध है तो वह त्याज्य है। कुछ मंदिरों में आरती के बाद "पापोऽहं पापकर्माऽहं पापात्मा पापसंभवः" जैसा अभद्र मंत्रपाठ करते है। यह मन्त्र वेदविरुद्ध है।
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वेदों के चार महावाक्य हैं ---
(१) प्रज्ञानं ब्रह्म --- (ऐतरेय उपनिषद) --- ऋग्वेद,
(२) अहम् ब्रह्मास्मि --- (बृहदारण्यक उपनिषद) --- यजुर्वेद,
(३) तत्वमसि --- (छान्दोग्य उपनिषद्) --- सामवेद,
(४) अयमात्माब्रह्म --- (मांडूक्य उपनिषद) ---अथर्व-वेद।
हम महान ऋषियों की संतानें हैं, अतः जिन महावाक्यों को आधार बना कर हमारे हमारे महान ऋषियों ने तपस्या की और महान बने वे महावाक्य हमारे भी जीवन का आधार बनें। इन्हें परमात्मा की कृपा द्वारा ही समझा जा सकता है क्योंकि इनके दर्शन ऋषियों को गहन समाधि में हुए। इनकी समाधि भाषा है। इन्हें कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही समझा सकता है।
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सारे उपनिषद् हमें प्रणव यानि ओंकार पर ध्यान करने का आदेश देते हैं। गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण का यही आदेश और उपदेश है। हमारे शास्त्रों में कहीं भी मनुष्य को जन्म से पापी नहीं कहा गया है। हम स्वधर्म पर अडिग रहें और स्वधर्म का पालन करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति ! 🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹
कृपा शंकर
११ जुलाई २०२१

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