Monday 25 March 2019

पुनर्जन्म न हो, इस पर एक लघु चर्चा .....

पुनर्जन्म न हो, इस पर एक लघु चर्चा .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन | मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८:१६||
अर्थात ... हे अर्जुन ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं| परन्तु हे कौन्तेय मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता||
जिसमें प्राणी उत्पन्न होते और निवास करते हैं, उसका नाम भुवन है| ब्रह्मलोक ब्रह्मभुवन कहलाता है| भगवान के अनुसार ब्रह्मलोक सहित समस्त लोक पुनरावर्ती हैं| अर्थात् जिनमें जाकर फिर संसार में जन्म लेना पड़े ऐसे हैं| परंतु केवल भगवान के प्राप्त होनेपर फिर पुनर्जन्म नहीं होता|
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एक ग्रन्थ में लिखा है .... "रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते|"
अर्थात् शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इस शरीर रूपी रथ में सूक्ष्म आत्मा को कैसे देखे?
इसका उत्तर बड़ा कठिन है| जो लोग दीर्घकाल तक गहन ध्यान साधना करते हैं, वे ही निजानुभूतियों से इसे समझ सकते हैं| मुझे यह विषय बहुत अच्छी तरह समझ में आता है पर किसी जिज्ञासु को समझाने में असमर्थ हूँ, क्योंकि यह बुद्धि का नहीं बल्कि अनुभूति का विषय है जिसे अनुभूतियों द्वारा ही समझा जा सकता है|
इसका अर्थ वही समझ सकता है जो कूटस्थ में ज्योति, अक्षर और स्पंदन के लय को सदा अनुभूत करता है| इसे लययोग भी कहते हैं| अपना संपूर्ण ध्यान ब्रह्मरंध पर केंद्रित करके ब्रह्म में लीन हो जाना "लय योग ध्यान" है| इसमें नादानुसन्धान, आत्म-ज्योति-दर्शन और कुण्डलिनि-जागरण करना पड़ता है| इसे क्रियायोग भी कहते हैं जिसे किसी सिद्ध गुरु से ही सीखना चाहिए, हर किसी से नहीं|
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हम झूले में ठाकुर जी को झूला झुला कर उत्सव मनाते हैंं, यह तो प्रतीकात्मक है| पर वास्तविक झूला तो कूटस्थ में है जहाँ सचमुच आत्मा की अनुभूति .... ज्योति, नाद व स्पंदन के रूप में होती है| तब सौ काम छोड़कर भी उस में लीन हो जाना चाहिए| यह स्वयं में एक उत्सव है| ज्योति, नाद व भगवत-स्पंदन की अनुभूति होने पर पूरा अस्तित्व आनंद से भर जाता है जैसे कोई उत्सव हो| यही ठाकुर जी को झूले में डोलाना है|
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तंत्र शास्त्रों में इसे दूसरे रूप में समझाया गया है....
"पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले |
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते ||" (तन्त्रराज तन्त्र).
अर्थात् पीये, और बार बार पीये जब तक भूमि पर न गिरे| उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
यह एक बहुत ही गहरा ज्ञान है जिसे एक रूपक के माध्यम से समझाया गया है| यह क्रियायोग विज्ञान है|
आचार्य शंकर ने "सौंदर्य लहरी" के आरम्भ में ही भूमि-तत्त्व के मूलाधारस्थ कुण्डलिनी के सहस्रार में उठ कर परमशिव के साथ विहार करने का वर्णन किया है| विहार के बाद कुण्डलिनी नीचे भूमि तत्त्व के मूलाधार में वापस आती है| बार बार उसे सहस्रार तक लाकर परमेश्वर से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता|
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सार : जिस विषय की चर्चा मैनें छेड़ी है उसकी साधना और अभ्यास में ही सार्थकता है| इस विषय में सिद्ध गुरु से दीक्षा लेकर उनके सान्निध्य में ही साधना करनी चाहिए|
आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०१९

1 comment:

  1. गजेन्द्रमोक्ष की कथा आज अचानक ही सामने आ गई| जीवरूपी गजेन्द्र और मोहरूपी ग्राह (मगर मच्छ) का यह शाश्वत युद्ध सृष्टि के आरंभ से ही चल रहा है और सृष्टि के अंत तक चलता ही रहेगा| इसमें हारना तो गजेन्द्र को ही है, और मुक्ति भी ग्राह को ही मिलनी है| हम तो प्रयास ही कर सकते हैं कि हमारे साथ ऐसी नौबत ही नहीं आये| पर यह युद्ध तो हमारे हृदय में ही चल रहा है अतः बच भी नहीं सकते| हे हरि, रक्षा करो|

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