कुण्डलिनी महाशक्ति क्या होती है ? .....
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यह विद्या एक वैदिक उपासना है जिसका वर्णन कृष्ण यजुर्वेद में है| पर किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु के आशीर्वाद व मार्गदर्शन के बिना इसे समझना असंभव है| यदि हो सके तो किन्हीं सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद व आज्ञा प्राप्त कर उन के सान्निध्य में श्वेताश्वतरोपनिषद् का एक बार स्वाध्याय करें| साथ साथ गुरु की आज्ञा से उनके मार्गदर्शन में ध्यान साधना भी करें| बृहदारण्यकोपनिषद में ऋषि याज्ञवल्क्य व राजा जनक के मध्य के संवाद का भी स्वाध्याय करें, गीता का तो नित्य करना ही है|
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"कुण्डलिनी" शब्द एक तांत्रिक नाम है, वैदिक नहीं| सूक्ष्म देह में कुण्डलिनी जागरण की अनुभूतियाँ सिद्धगुरु के रूप में परमात्मा की कृपा व आशीर्वाद से ही होती हैं| श्रीहनुमान जी के ध्यान साधकों में श्रीहनुमान जी की कृपा से भी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है| श्रीहनुमान जी वायु व प्राण-तत्व भी हैं| हनुमान चालीसा का आरम्भ "श्रीगुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार" शब्दों से होता है| इन शब्दों का एक गहनआध्यात्मिक अर्थ भी है| इसका लौकिक अर्थ तो होता है .... "श्रीगुरु चरणकमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को उज्जवल करते हुए"| यहाँ विचार का विषय है कि श्रीगुरुचरण क्या हैं? उनकी धूल क्या है? और उनसे मन रूपी दर्पण कैसे सुधरेगा? इस पर विचार करें|
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हमारा आज्ञाचक्र अवधान का भूखा है| आज्ञाचक्र के ठीक सामने भ्रूमध्य है, जहाँ हम गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं, पर चेतना आज्ञाचक्र में ही रहती है| शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़ कर तालू से सटाते हुए) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करते रहने से, परमात्मा के परम अनुग्रह से कुछ महिनों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान सूर्यमंडल के तरह की ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होने लगती है और प्रणव की ध्वनि भी सुनाई देने लगती है| भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के ब्रह्मरूप दर्शन में इस ज्योति का वर्णन किया है ....
"दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता| यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः||११:१२||"
यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| इसे ही कूटस्थ कहते हैं, और इसकी चेतना ही "कूटस्थ चैतन्य" कहलाती है| गीता में इसी के बारे में भगवान कहते हैं ....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||
कूटस्थ चैतन्य में निरंतर स्थिति ही ब्राह्मी स्थिति है जिसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण गीता में करते हैं.....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं, क्योंकि यहीं आज्ञाचक्र में जीवात्मा का निवास है| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु (शिखा स्थान) है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे से थोड़ा नीचे की ओर का भाग है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ आकर मस्तिष्क से मिलती हैं|
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कूटस्थ में चेतना को सदा रखने की साधना करने से शरीर की प्राण-ऊर्जा जो बाह्यमुखी है, अंतर्मुखी होकर मूलाधार चक में एकत्र होने लगती है| इस घनीभूत प्राणऊर्जा को ही कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं| यह अनुभवज्ञेय विषय है, बौद्धिक नहीं| इसे समझाने के लिए तंत्रागमों में प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग किया गया है, जिसे सिर्फ बुद्धि से ही समझना बड़ा भ्रामक है|
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ध्यान साधना करते करते एक समय ऐसा आता है जब लगता है कि कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| बस समझ लीजिये कि कुण्डलिनी का जागरण आरम्भ होने ही वाला है| गुरुकृपा से यह घनीभूत प्राणऊर्जा जो मूलाधार में एकत्र है, एक दिन अचानक ही मूलाधार का भेदन कर सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती है जिसका पता साधक को चल जाता है| यही कुण्डलिनी जागरण है|
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धीरे धीरे धीरे कूटस्थ-ब्रह्मज्योति सहस्त्रार में दिखाई देने लगती है तब सहस्त्रार में ही ध्यान करना चाहिए| सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण-कमल हैं| सहस्त्रार पर ध्यान ही श्रीगुरुचरणों का ध्यान है| सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| वहाँ से निकलने वाला प्रकाश-पुंज श्रीगुरुचरणों की रज है| मन को वहीं लगाकर रखना चाहिए|
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श्रीगुरुचरणों के ध्यान से वहाँ का प्रबल आकर्षण उस घनीभूत प्राण को अपनी ओर ऊपर खींचता है| उस घनीभूत प्राण का प्रवाह ऊपर-नीचे चलता रहता है| मूलाधार से आज्ञाचक्र के मध्य का स्थान "अज्ञान-क्षेत्र" है| वह घनीभूत प्राणऊर्जा यानि कुण्डलिनी महाशक्ति एक दिन गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भी भेदन कर लेती है जहाँ से "ज्ञान-क्षेत्र" आरम्भ होता है| इसे उत्तरा-सुषुम्ना भी कहते हैं| सारा ज्ञान और सारी सिद्धियाँ यहीं है| यहीं से ज्येष्ठा, वामा व रोद्री ग्रंथियों का आभास होता है जिनसे सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण निःसृत होते हैं| सहस्त्रार से व ब्रह्मरंध्र से आगे का भाग "पराक्षेत्र" है जहाँ जीवात्मा परमात्मा के एक हो जाती है| उस स्थान के बारे में भगवान कहते हैं .....
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||
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पर यह इतना सरल नहीं है| इसके लिए चाहिए गीता में बताई हुई अव्यभिचारिणी अनन्य भक्ति, और पूर्ण समर्पण | गुरुकृपा भी तभी होती है जब निष्ठापूर्वक पूर्ण समर्पण हो, अन्यथा नहीं|
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"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
"तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत| तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्||१८:६२||"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
"न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः| भविता न च मे तस्मा-दन्यःप्रियतरो भुवि||१८:६९||"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
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यह विद्या एक वैदिक उपासना है जिसका वर्णन कृष्ण यजुर्वेद में है| पर किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु के आशीर्वाद व मार्गदर्शन के बिना इसे समझना असंभव है| यदि हो सके तो किन्हीं सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद व आज्ञा प्राप्त कर उन के सान्निध्य में श्वेताश्वतरोपनिषद् का एक बार स्वाध्याय करें| साथ साथ गुरु की आज्ञा से उनके मार्गदर्शन में ध्यान साधना भी करें| बृहदारण्यकोपनिषद में ऋषि याज्ञवल्क्य व राजा जनक के मध्य के संवाद का भी स्वाध्याय करें, गीता का तो नित्य करना ही है|
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"कुण्डलिनी" शब्द एक तांत्रिक नाम है, वैदिक नहीं| सूक्ष्म देह में कुण्डलिनी जागरण की अनुभूतियाँ सिद्धगुरु के रूप में परमात्मा की कृपा व आशीर्वाद से ही होती हैं| श्रीहनुमान जी के ध्यान साधकों में श्रीहनुमान जी की कृपा से भी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है| श्रीहनुमान जी वायु व प्राण-तत्व भी हैं| हनुमान चालीसा का आरम्भ "श्रीगुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार" शब्दों से होता है| इन शब्दों का एक गहनआध्यात्मिक अर्थ भी है| इसका लौकिक अर्थ तो होता है .... "श्रीगुरु चरणकमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को उज्जवल करते हुए"| यहाँ विचार का विषय है कि श्रीगुरुचरण क्या हैं? उनकी धूल क्या है? और उनसे मन रूपी दर्पण कैसे सुधरेगा? इस पर विचार करें|
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हमारा आज्ञाचक्र अवधान का भूखा है| आज्ञाचक्र के ठीक सामने भ्रूमध्य है, जहाँ हम गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं, पर चेतना आज्ञाचक्र में ही रहती है| शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़ कर तालू से सटाते हुए) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करते रहने से, परमात्मा के परम अनुग्रह से कुछ महिनों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान सूर्यमंडल के तरह की ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होने लगती है और प्रणव की ध्वनि भी सुनाई देने लगती है| भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के ब्रह्मरूप दर्शन में इस ज्योति का वर्णन किया है ....
"दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता| यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः||११:१२||"
यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| इसे ही कूटस्थ कहते हैं, और इसकी चेतना ही "कूटस्थ चैतन्य" कहलाती है| गीता में इसी के बारे में भगवान कहते हैं ....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||
कूटस्थ चैतन्य में निरंतर स्थिति ही ब्राह्मी स्थिति है जिसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण गीता में करते हैं.....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं, क्योंकि यहीं आज्ञाचक्र में जीवात्मा का निवास है| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु (शिखा स्थान) है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे से थोड़ा नीचे की ओर का भाग है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ आकर मस्तिष्क से मिलती हैं|
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कूटस्थ में चेतना को सदा रखने की साधना करने से शरीर की प्राण-ऊर्जा जो बाह्यमुखी है, अंतर्मुखी होकर मूलाधार चक में एकत्र होने लगती है| इस घनीभूत प्राणऊर्जा को ही कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं| यह अनुभवज्ञेय विषय है, बौद्धिक नहीं| इसे समझाने के लिए तंत्रागमों में प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग किया गया है, जिसे सिर्फ बुद्धि से ही समझना बड़ा भ्रामक है|
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ध्यान साधना करते करते एक समय ऐसा आता है जब लगता है कि कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| बस समझ लीजिये कि कुण्डलिनी का जागरण आरम्भ होने ही वाला है| गुरुकृपा से यह घनीभूत प्राणऊर्जा जो मूलाधार में एकत्र है, एक दिन अचानक ही मूलाधार का भेदन कर सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती है जिसका पता साधक को चल जाता है| यही कुण्डलिनी जागरण है|
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धीरे धीरे धीरे कूटस्थ-ब्रह्मज्योति सहस्त्रार में दिखाई देने लगती है तब सहस्त्रार में ही ध्यान करना चाहिए| सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण-कमल हैं| सहस्त्रार पर ध्यान ही श्रीगुरुचरणों का ध्यान है| सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| वहाँ से निकलने वाला प्रकाश-पुंज श्रीगुरुचरणों की रज है| मन को वहीं लगाकर रखना चाहिए|
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श्रीगुरुचरणों के ध्यान से वहाँ का प्रबल आकर्षण उस घनीभूत प्राण को अपनी ओर ऊपर खींचता है| उस घनीभूत प्राण का प्रवाह ऊपर-नीचे चलता रहता है| मूलाधार से आज्ञाचक्र के मध्य का स्थान "अज्ञान-क्षेत्र" है| वह घनीभूत प्राणऊर्जा यानि कुण्डलिनी महाशक्ति एक दिन गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भी भेदन कर लेती है जहाँ से "ज्ञान-क्षेत्र" आरम्भ होता है| इसे उत्तरा-सुषुम्ना भी कहते हैं| सारा ज्ञान और सारी सिद्धियाँ यहीं है| यहीं से ज्येष्ठा, वामा व रोद्री ग्रंथियों का आभास होता है जिनसे सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण निःसृत होते हैं| सहस्त्रार से व ब्रह्मरंध्र से आगे का भाग "पराक्षेत्र" है जहाँ जीवात्मा परमात्मा के एक हो जाती है| उस स्थान के बारे में भगवान कहते हैं .....
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||
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पर यह इतना सरल नहीं है| इसके लिए चाहिए गीता में बताई हुई अव्यभिचारिणी अनन्य भक्ति, और पूर्ण समर्पण | गुरुकृपा भी तभी होती है जब निष्ठापूर्वक पूर्ण समर्पण हो, अन्यथा नहीं|
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"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
"तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत| तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्||१८:६२||"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
"न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः| भविता न च मे तस्मा-दन्यःप्रियतरो भुवि||१८:६९||"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ मार्च २०१९
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ मार्च २०१९
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