Sunday 19 June 2016

योग साधना का उद्देश्य है --- परम शिवभाव को प्राप्त करना .....

योग साधना है सूक्ष्म देह में मूलाधारस्थ कुण्डलिनी महाशक्ति को जागृत कर उसका सहस्त्रार में परमशिव से एकाकार करना यानि जोड़ना | यह कुण्डलिनी जागृत होकर साधक को ही जागृत करती है | योग साधना का उद्देश्य है .... परम शिवभाव को प्राप्त करना |
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चित्तवृत्ति निरोध एक साधन है साध्य नहीं| चित्त स्वयं को दो रूपों --- वासनाओं व श्वाश-प्रश्वाश के रूप में व्यक्त करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः आरम्भ में गुरु-प्रदत्त बीज मन्त्रों के साथ श्वाश पर ध्यान किया जाता है| इससे मेरुदंड में प्राण शक्ति का आभास होता है जिसके नियंत्रण से वासनाओं पर नियंत्रण होता है| आगे का मार्ग बहुत लम्बा है जिस पर साधक गुरुकृपा से अग्रसर होता रहता है|
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योगी वही हो सकता जो स्वभाव से ही योगी हो ......
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भगवन श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है .....
"तपस्विभ्योधिको योगी ज्ञानिभ्योsपि मतोsधिक:|
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्मात् योगी भवार्जुन:||"
तपस्वी, ज्ञानी और कर्मशील से भी अधिक योगी का महत्व बताकर भगवन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योगी बनने का उपदेश दिया है| अब प्रश्न यह उठता है की योगी कैसे बना जाए|
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योगी गुरु की कृपा के बिना कभी कोई योगी नहीं बन सकता है| वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हरेक साधक को हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है|
जब एक बार स्वभाव में योग साधना बस जाये तो गुरुशक्ति ही साधक को साधना के चरम उत्कर्ष पर पहुँच देती है| इसके लिए आवश्यक है गुरु पर अटल विश्वाश और पूर्ण आत्मसमर्पण| स्वभाव है स्व का भाव |
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सुषुम्ना पथ के न खुलने तक अर्थात सुषुम्ना पथ पर प्राण वायु के गमनागमन न होने तक कोई भी व्यक्ति योगी नहीं बन सकता है|
श्वास-प्रश्वाश भौतिक रूप से तो नाक से ही चलता है पर उसकी अनुभूति मेरुदंड में होती है| श्वाश-प्रश्वाश तो एक प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं| प्राण तत्व जो मेरुदंड में संचारित होता है, उसी की प्रतिक्रया है सांस|

इति | शिवमस्तु | ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !

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