हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं .........
फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है ?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है ?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?
.
हे प्रभु, तुम्हें इसी क्षण यहाँ आना ही पडेगा जहाँ तुमने मुझे रखा है| न तो तुम्हारी माया को और न तुम्हें ही जानने या समझने की कोई इच्छा है| अब तुम और छिप नहीं सकते| तुम्हें इसी क्षण यहाँ अनावृत होना ही पड़ेगा|
मेरा समर्पण पूर्ण हो| आपकी जय हो|
फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है ?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है ?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?
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हे प्रभु, तुम्हें इसी क्षण यहाँ आना ही पडेगा जहाँ तुमने मुझे रखा है| न तो तुम्हारी माया को और न तुम्हें ही जानने या समझने की कोई इच्छा है| अब तुम और छिप नहीं सकते| तुम्हें इसी क्षण यहाँ अनावृत होना ही पड़ेगा|
मेरा समर्पण पूर्ण हो| आपकी जय हो|
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