Thursday 29 July 2021

सभी प्राणियों को मैं नमन करता हूँ, क्योंकि प्राण रूप में स्वयं परम-पुरुष भगवान नारायण उन में उपस्थित हैं ---

 सभी प्राणियों को मैं नमन करता हूँ, क्योंकि प्राण रूप में स्वयं परम-पुरुष भगवान नारायण उन में उपस्थित हैं।

प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ---
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ध्रुव उवाच -
योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां
संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥ - श्रीमद् भागवतम् ४.९.६
अर्थात् -- हे प्रभो! आपने ही मेरे अंतःकरण में प्रवेश कर मेरी सोई हुई वाणी को सजीव किया है, तथा आप ही हाथ,पैर कान और त्वचा आदि इंद्रियों को चेतना प्रदान करते हैं। मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूं।
Prostration to You, O Bhagavān, the supreme Consciousness, possessor of all powers, who, having entered my being, has activated my dormant speech, and likewise has empowered the other organs such as the hands, feet, ears, skin and all the vital forces, by virtue of His mere Presence.
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सत्य सनातन धर्म -- प्राण-तत्व है, जिसने इस सारी सृष्टि को धारण कर रखा है। प्राण-तत्व से ही ऊर्जा निर्मित हुई है, जिससे सृष्टि का निर्माण हुआ। प्राण-तत्व से ही सारे प्राणियों और देवी-देवताओं का अस्तित्व है। प्राण-तत्व को जानना ही परमधर्म है। प्राण-तत्व का ज्ञान श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध योगी सद्गुरु की कृपा से उनके द्वारा बताई हुई साधना, उनके सान्निध्य में, सफलतापूर्वक करने से होता है।
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स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नाद्धीर्य तपोमंत्राः कर्मलोकालोकेषु च नाम च। -प्रश्नोपनिषद् ६/४॥
अर्थात् - परमात्मा ने सर्वप्रथम प्राण की रचना की। तत्पश्चात् श्रद्धा उत्पन्न की। तब आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व बनाये। इसके उपरान्त क्रमशः मन, इन्द्रिय, समूह, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, और कर्मों का निर्माण हुआ। तदन्तर विभिन्न लोक बने।
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सोऽयमाकाशः प्राणेन वृहत्याविष्टव्धः तद्यथा यमाकाशः प्राणेन वृहत्या विष्टब्ध एवं सर्वाणि भूतानि आपि पीलिकाभ्यः प्राणेन वृहत्या विष्टव्धानी त्येवं विद्यात्। -एतरेय २/१/६
अर्थात्- प्राण ही इस विश्व को धारण करने वाला है। प्राण की शक्ति से ही यह ब्रह्मांड अपने स्थान पर टिका हुआ है। चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी इस प्राण के ही आश्रित हैं। यदि प्राण न होता तो जो कुछ हम देखते हैं कुछ भी न दीखता।
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कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म नद्रित्याचक्षते। -बृहदारण्यक
अर्थात्- वह एक देव कौन सा है? वह प्राण है। ऐसा कौषितकी ऋषि ने व्यक्त किया है।
‘प्राणों ब्रह्म’ इति स्माहपैदृश्य। अर्थात्- पैज्य ऋषि ने कहा है कि प्राण ही ब्रह्म है।
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प्राण एव प्रज्ञात्मा। इदं शरीरं परिगृह्यं उत्थापयति। यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। -शाखायन आरण्यक ५/३
अर्थात्- इस समस्त संसार में तथा इस शरीर में जो कुछ प्रज्ञा है, वह प्राण ही है। जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।
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भृगुतंत्र में कहा गया है -- "उत्पत्ति मायाति स्थानं विभुत्वं चैव पंचधा। अध्यात्म चैब प्राणस्य विज्ञाया मृत्यश्नुते॥" अर्थात् - प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? कहाँ से शरीर में आता है? कहाँ रहता है? किस प्रकार व्यापक होता है? उसका अध्यात्म क्या है? जो इन पाँच बातों को जान लेता है, वह अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है।
२० जून २०२१ 

1 comment:

  1. हे प्राण ! तुम्हें नमस्कार !! तुम्हीं मेरे जीवन हो ---
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    अथर्ववेद का ११ वां काण्ड प्राण-सूक्त है, जिसके भार्गव और वैदर्भि ऋषि हैं, प्राण देवता हैं, और अनुष्टुप छंद है। इसमें कुल २६ मंत्र है। परमात्मा की परम कृपा से प्राण-तत्व का रहस्य यदि समझ में आ जाये तो सृष्टि के सारे रहस्य और सब कुछ अपने आप ही समझ में आ जाता है। फिर इस सृष्टि में जानने योग्य अन्य कुछ भी नहीं रह जाता है।
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    पिछले कुछ दिनों में मैंने प्राण-तत्व पर दो लेख लिखे हैं। अतः और लिखने की आवश्यकता अनुभूत नहीं करता। मैं आते हुए प्राण, जाते हुए प्राण, और स्थिर प्राण -- सब को नमस्कार करता हूँ। सब स्थितियों और सब कालों में हे प्राण ! तुम्हें नमस्कार। हे प्राण ! मैं सदा आते-जाते तुझपर दृष्टि रखता हूँ। तेरे आने और जाने की गति के साथ अपनी मनोवृत्ति को लाता और ले-जाता रहता हूँ। तेरे आने-जाने के साथ मेरा अजपा-जप हो जाता है। मैं तुझे तेरी सब स्थितियों में और सब कालों में नमस्कार करता हूँ। ॐ ॐ ॐ !!

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