Monday, 24 January 2022

मकर संक्रांति/पोंगल के शुभ अवसर पर तीर्थराज त्रिवेणी संगम में स्नान करें ---

 मकर संक्रांति/पोंगल के शुभ अवसर पर तीर्थराज त्रिवेणी संगम में स्नान करें ---

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गुरु महाराज ने बलात् मुझे उठाकर तीर्थराज त्रिवेणी-संगम नामक अमृत-कुंड में बड़ी ज़ोर से अपनी पूरी ताकत लगाकर फेंक दिया, और स्वयं अदृश्य हो गये। अदृश्य होकर भी उन्होने सुनिश्चित किया कि मेरा जीवन उत्तरायण, धर्म-परायण व राममय हो जाये। अब तक तो वह त्रिवेणी-संगम बहुत पीछे छूट गया है। पता नहीं तब से अब तक गंगाजी में कितना पानी बह चुका है। वह त्रिवेणी-संगम था -- भ्रूमध्य में कूटस्थ-बिन्दु, जहाँ इड़ा भगवती गंगा, पिंगला भगवती यमुना, और सुषुम्ना भगवती सरस्वती नदियों का संगम होता है। इस तीर्थराज में स्नान करने से क्या मिला यह तो वे ही जानें, लेकिन मेरा जीवन तो धन्य हो गया है। अपनी चेतना को भ्रूमध्य में और उससे ऊपर रखना त्रिवेणी संगम में स्नान करना है। आने-जाने वाली हर सांस के प्रति सजग रहें, और निज चेतना का निरंतर विस्तार करते रहें।
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उस कूटस्थ-चैतन्य में हम अनंत, सर्वव्यापक, असम्बद्ध, अलिप्त व शाश्वत हैं। हमारे हृदय की हर धड़कन, हर आती जाती साँस, -- परमात्मा की कृपा है। हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है। हम जीवित हैं सिर्फ परमात्मा के लिए ही। अब तो परमशिव परमात्मा ने सारा भार अपने ऊपर ले लिया है, वे जानें और उनका काम जानें।
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अब तक की यह यात्रा तरह तरह के भटकाओं और बाधाओं से भरी एक गड़बड़झाला की तरह थी, जिसे उनकी परम कृपा से ही पार कर पाये। खुद का बल कोई काम नहीं आया। अपने जीवन का ध्रुव, भगवान को ही बनाया, तो सारी बाधाएँ दूर हो गईं। गुरुजी के ही शब्दों में --
I have made thee polestar of my life
Though my sea is dark, and my stars are gone
Still, I see the path through thy mercy
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जब भी भगवान की याद आये वही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है। उसी क्षण स्वयं प्रेममय बन जाओ, यही सर्वश्रेष्ठ साधना है. अपनी व्यक्तिगत साधना/उपासना में एक नए संकल्प और नई ऊर्जा के साथ गहनता लायें। >>> रात्रि को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ। >>> दिन का प्रारम्भ परमात्मा के प्रेम रूप पर ध्यान से करें। >>>पूरे दिन परमात्मा की स्मृति रखें। >>> यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः स्मरण करते रहें। एक दिन पाओगे कि भवसागर तो कभी का पीछे निकल गया, कुछ पता ही नहीं चला।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् - "(तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥९:३४॥"
"तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥१८:६५॥"
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अभीप्सा, परमप्रेम और पूर्ण समर्पण -- यही वेदान्त है, यही ज्ञान है, यही भक्ति है, और यही सनातन धर्म है। बाकी सब इन्हीं का विस्तार है। इनके सिवाय मुझे तो अन्य कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता। सर्वत्र भगवान वासुदेव हैं। वे ही श्रीराम हैं, वे ही परमशिव पारब्रह्म हैं, और वे ही सर्वस्व हैं। कहीं कोई पृथकता नहीं है। अन्य कुछ है ही नहीं। ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२२

1 comment:

  1. ईश्वर से मुझे स्पष्ट प्रेरणा मिल रही है कि अब से मैं अपना अधिकाधिक समय उनकी सेवा में ही व्यतीत करूँ। सेवा की अवधारणा स्पष्ट रूप से मुझे समझा दी गई है। किसी भी तरह का कोई संदेह नहीं रहने दिया है। उन्हें क्या चाहिए यह भी मुझे समझा दिया गया है। अब उनके आदेश को तो मानना ही पड़ेगा। कोई विकल्प नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!

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