हमारे जीवन का एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है। जैसी हमारी पात्रता है, उसी के अनुसार भगवान हमारा मार्गदर्शन करते हैं। भगवत्-प्राप्ति ही हमारा स्वधर्म है, और यही सनातन धर्म का सार है। हम कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन कर्ताभाव ही हमें कर्मफलों को भोगने को बाध्य करता है। जब तक कर्ताभाव है तब तक यह जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहेगा। इसे कोई नहीं रोक सकता। इस चक्र से मुक्त होने के लिए जीवन में भक्ति, वैराग्य और ज्ञान का होना परम आवश्यक है। हम निमित्त मात्र होकर कार्य करें। भगवान को ही कर्ता बनाएँ। गीता में भगवान कहते हैं ---
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् - "इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥"
बायें हाथ से भी बाण चलाने का अभ्यास होनेके कारण अर्जुन "सव्यसाची" कहलाता है।
.
हमारी सबसे बड़ी समस्या है कि हमें भक्ति, वैराग्य और ज्ञान कैसे प्राप्त हों? ये ही हमें असत्य के अंधकार से बचा सकते हैं। हम भगवान को निरंतर अपनी स्मृति में रखें। फिर भगवान को आना ही पड़ेगा। जैसे कोई माता-पिता अपनी संतान के बिना नहीं रह सकते, वैसे ही भगवान भी हमारे बिना नहीं रह सकते। लेकिन वे तभी आयेंगे जब हम उन्हें अपने हृदय का पूर्ण प्यार देंगे।
भगवान कहते हैं ---
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - "इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
(यहाँ 'युद्ध करो' से अभिप्राय है, हर कार्य करो। यह जीवन भी एक युद्धभूमि है जहाँ भगवान स्वयं ही कर्ता हैं, हम तो निमित्त मात्र हैं)
.
भगवान को पाने की एक तीब्र अभीप्सा हृदय में निरंतर हो। अभीप्सा का अर्थ है - एक अतृप्त प्यास और तड़प। हमारी साँसें चल रही हैं, यह भगवान की हमारे ऊपर सबसे बड़ी कृपा, और उनकी उपस्थिती का प्रमाण है। भगवान समान भाव से सर्वत्र व्याप्त हैं। उनकी माया के आवरण और विक्षेप ने हमें उन से दूर कर रखा है। यह सारी सृष्टि, सारा ब्रह्मांड, सारा विश्व ही विष्णु का रूप है --
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥" (विष्णु सहस्त्र्नाम प्रथम मंत्र)
.
ईशावास्योपनिषद का प्रथम मंत्र कहता है ---
"ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥"
उपरोक्त मंत्र का अर्थ बहुत व्यापक है। इसका सार यही है कि इस सारे जगत में ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है। यह उन्हीं के आवास के लिए है। त्यागपूर्वक यानि यह मेरा नहीं है, के भाव से जीवनयापन करें। किसी भी दूसरे की धन-सम्पत्ति पर ललचाई दृष्टि न डालें।
.
जैसी हमारी पात्रता है उसके अनुसार भगवान हमारा मार्गदर्शन करते हैं। यह मैं मेरे निजी अनुभव द्वारा कह रहा हूँ। जैसा और जो भी उनसे प्रेरणा मिलती है, वही मेरे माध्यम से लिखा जाता है। मैं अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं लिखता। मेरे हर विचार के पीछे परमात्मा हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० जनवरी २०२२
No comments:
Post a Comment