योगक्षेमं वहाम्यहम् ---
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यदि श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक में मेरी सत्यनिष्ठा, पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से हो जाये तो संसार में मेरे लिए कभी किसी भी परिस्थिति में कोई चिंता की बात ही नहीं है। लेकिन स्वयं में ही एक बहुत बड़ी कमी दृष्टिगोचर होती है, जिसे दूर करना है। भगवान श्रीकृष्ण ने यहाँ दो शर्तें रख दी हैं -- एक तो नित्ययुक्त होने की, और दूसरी अनन्यभाव की। दोनों की ही सिद्धि पूर्ण समर्पण माँगती हैं। वेदान्त के दृष्टिकोण से हर बात को बौद्धिक स्तर पर तो बहुत अच्छी तरह समझता हूँ, लेकिन व्यवहार रूप में लाना हरिःकृपा से ही संभव है।
भगवान कहते हैं ---
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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यह श्लोक गीता का मध्यबिन्दु है। यदि यह जीवन में चरितार्थ हो जाये तो आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है। भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में जो कहा है, उसका सार यह है --
"जो निष्कामी अनन्यभाव से युक्त हुए मुझ नारायण को आत्मरूप से जानते हुए मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी श्रेष्ठ -- निष्काम उपासना करते हैं; निरन्तर मुझ में ही स्थित उन परमार्थज्ञानियों का योगक्षेम मैं चलाता हूँ। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है और प्राप्त वस्तुकी रक्षाका नाम क्षेम है। उनके ये दोनों काम मैं स्वयं किया करता हूँ। ज्ञानी को तो मैं अपना आत्मा ही मानता हूँ, और वह मेरा प्यारा है। इसलिये वे उपर्युक्त भक्त मेरे आत्मरूप और प्रिय हैं। अन्य भक्तों का योगक्षेम भी तो भगवान् ही चलाते हैं, यह बात ठीक है; अवश्य भगवान् ही चलाते हैं किंतु उसमें यह भेद है कि जो दूसरे भक्त हैं, वे स्वयं भी अपने लिये योगक्षेम सम्बन्धी चेष्टा करते हैं। पर अनन्यदर्शी भक्त अपने लिये योगक्षेम सम्बन्धी चेष्टा नहीं करते; क्योंकि वे जीने और मरने में भी अपनी वासना नहीं रखते। केवल भगवान् ही उनके अवलम्बन रह जाते हैं। अतः उनका योगक्षेम स्वयं भगवान् ही चलाते हैं।"
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यहाँ एक सामान्य साधक के लिए आचार्य शंकर को समझना कठिन है, लेकिन मुझे तो वे ही समझ में आते हैं। अब मेरा समय आ गया है। इस आयु में स्मृति तेजी से कम होने लगी है। अब निज स्वाध्याय यानि उपासना को क्रमशः गुणवत्ता के हिसाब से भी, और समय की दीर्घता के हिसाब से भी बढ़ाना है। आज ही दिन में मैं एक संबंधी के दाह-संस्कार में गया हुआ था जहाँ अनेक पूर्व घनिष्ठ परिचित मिले। मैंने पाया कि मैं अधिकांश के नाम भूल गया हूँ। मुझे उनके नाम याद करने के लिए चलभास (मोबाइल) की सहायता लेनी पड़ी। यह खतरनाक स्थिति है। अब उपासना काल को यथासंभव अधिकाधिक हर दृष्टि से बढ़ाना है। पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो।
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अंत समय में परमात्मा की पूर्ण चेतना में स्थित, सचेतन रूप से, योगस्थ होकर ही मैं देह-त्याग करूंगा। यह मेरा संकल्प है, कोई अहंकार नहीं। परमात्मा को पूर्णतः समर्पित तो इसी क्षण से होना पड़ेगा।
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आप सब का आशीर्वाद प्रार्थित है। ॐ नमो नारायण !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१६ जनवरी २०२१
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