भगवान की कृपा हो तो हमारे पूर्व जन्मों के अच्छे संस्कार जागृत हो कर हृदय में भक्ति जागृत कर देते हैं। अन्यथा अपनी बुराइयों और कमियों से इस मायावी संसार के पाशों से ही हम सदा बंधे ही रहते हैं। आध्यात्मिक मार्ग पर बिना वीतराग (राग-द्वेष से मुक्त) हुए प्रगति नहीं होती। फिर भय और क्रोध से भी मुक्त होना पड़ता है। तभी हम स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं। जो स्थितप्रज्ञ है, वही मुनि या सन्यासी है। भगवान कहते हैं --
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
अर्थात् -- दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं; स्थितप्रज्ञ मुनि वही कहलाता है॥
आचार्य शंकर के अनुसार आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आघिदैविक इन तीनों प्रकार के दुःखों के प्राप्त होने से भी जिसका मन उद्विग्न अर्थात् क्षुभित नहीं होता उसे अनुद्विग्नमना कहते हैं। सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा, तृष्णा नष्ट हो गयी है, अर्थात् ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है, वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती, वह विगतस्पृह कहलाता है। आसक्ति, भय और क्रोध जिसके नष्ट हो गये हैं, वह वीतरागभयक्रोध कहलाता है। ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह स्थितधी यानी स्थितप्रज्ञ और मुनि या संन्यासी कहला सकता है।
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भगवान श्रीकृष्ण तो हमें -- निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम, आत्मवान् और निस्त्रैगुण्य होने का आदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् -- हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है। तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित, और आत्मवान् बनो॥
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अंततः अनात्मा सम्बन्धी सभी विषयों से उपरति होना आवश्यक है। भगवान से हमारा प्रेम इतना अधिक हो जाये कि अन्य सब विषयों से अनुराग समाप्त हो जाये। जब राग ही नहीं रहेगा तो द्वेष भी नहीं रहेगा, और आत्मानुसंधान भी सम्पन्न हो जाएगा। श्रुति भगवती के आदेशानुसार बुद्धिमान् ब्राह्मण को चाहिये कि परमात्मा को जानने के लिए उसी में बुद्धि को लगाये, अन्य नाना प्रकार के व्यर्थ शब्दों की ओर ध्यान न दे।
"तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः।
नानुध्यायाद् बहूब्छब्दान्वाची विग्लापन हि तदिति॥ बृहद., ४/४/२९॥"
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पहले मैं सहस्त्रारचक्र में भगवान के चरण-कमलों का ध्यान करता था। लेकिन अब तो भावों में साकार रूप से उनके नयन-कमल ही मेरे समक्ष रहते हैं। उनके नयन इतने सुंदर हैं कि सृष्टि का सारा सौंदर्य भी उनके समक्ष कुछ नहीं है। अब तो भगवान के नयनों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी देखने की कोई अभिलाषा नहीं है। उनके नयन मेरे नयनों में बस गए हैं। उन्हें देखते देखते ही यह जीवन बीत जाये। और कुछ भी नहीं चाहिए। उनके नयन-कमल सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। मैं उनके नयनपथ में हूँ, और वे मेरे नयनपथ में हैं। अन्य सब मिथ्या है। अंत में यह कहना चाहता हूँ कि जैसे एक रोगी के लिए कुपथ्य होता है, वैसे ही एक आध्यात्मिक साधक के लिए अनात्म विषय होते हैं।
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इससे आगे और लिखने की सामर्थ्य मुझ अकिंचन में नहीं है। हे प्रभु, आपकी जय हो। इस विषय पर और चर्चा नहीं करना चाहता।
ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२१ जनवरी २०२२
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पुनश्च: ---- हमारे शास्त्रों में तीन प्रकार के दुःख माने गए हैं— आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आघिदैविक। लेकिन मैं तो भगवान से पृथकता को ही वास्तविक दुःख मानता हूँ। वेदों में "ख" यानि आकाश-तत्व को ब्रह्म यानि परमात्मा माना गया है। "ॐ खं ब्रह्म" (यजुर्वेद: ४०/१७)॥ भगवान से दूरी ही दुःख है, और भगवान से समीपता ही सुख है।
(१) आध्यात्मिक दुःख के अंतर्गत तरह तरह के रोग व्याधियाँ आदि शारीरिक, और क्रोध लोभ आदि मानसिक दुःख आते हैं। (२) आधिभौतिक दुःख वह है जो पशु,पक्षी साँप, मच्छर, विषाणुओं आदि के द्वारा पहुँचता है। (३) आधिदैविक दुःख वह है जो देवताओं अर्थात् प्राकृतिक शक्तियों के कारण पहुँचता है, जेसे -- आँधी, वर्षा, वज्रपात, शीत, ताप इत्यादि।
रामचरितमानस के अनुसार दरिद्रता सबसे बड़ा दुख है --
"नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥"
-जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है।
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