हे प्रभु तुम कितने सुन्दर हो! तुम्हारी सुन्दरता शब्दों में नहीं बंध सकती। मैं तुम्हारे साथ एक हूँ। मुझे कभी भी स्वयं से पृथक ना करो।
.
मेरे में बहुत अधिक कमियाँ हैं, जिन्हें दूर करने के लिए अनेक जन्म चाहियें। तब तक और प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आप की आवश्यकता तो मुझे अभी इसी क्षण है। गीता में आपने हमें सर्वप्रथम राग-द्वेष आदि का त्याग करने का आदेश दिया है। फिर संयम और वैराग्य की आवश्यकता बताई है --
"बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८:५१॥"
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८:५२॥"
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८:५३॥"
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
"सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥१८:५६॥"
"चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥१८:५७॥"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
.
लेकिन राग-द्वेष-अहंकार-काम-क्रोध-परिग्रह, व ममत्व का त्याग अभी तक नहीं कर पाया हूँ। संयम और वैराग्य का नामोनिशान मुझ में नहीं है। अतः असहाय होकर अब आप की ही शरण ले रहा हूँ। अतः जो भी हूँ, जैसा भी हूँ, स्वयं को समर्पित कर रहा हूँ। यह चित्त अब आपका ही है। मेरे पास इस चित्त के सिवाय और कुछ अर्पण करने के लिए है ही नहीं। आपका ही आदेश और आश्वासन है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
.
अब आप के सिवाय अन्य कोई आश्रय नहीं है। त्राहिमाम् त्राहिमाम् !!
लेकिन निराश नहीं हूँ। आप मेरे हृदय-मंदिर में बिराजमान हैं। आपकी कृपा से सब कुछ संभव है।
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
.
जहाँ आप स्वयं हैं, वहाँ मुझे अन्य किसी की भी आवश्यकता नहीं है। आप सदैव मेरे कूटस्थ हृदय-मंदिर में बिराजमान रहो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जनवरी २०२२
No comments:
Post a Comment