साधना का उद्देश्य है ..... आत्म समर्पण ......
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जो भी साधना हम करते हैं वह हमारे लिये नहीं अपितु भगवान के लिये है|
उसका उद्देश्य व्यक्तिगत मुक्ति नहीं है|
साधना का उद्देश्य है ---- "आत्म समर्पण|"
.
अपने समूचे ह्रदय और शक्ति के साथ अपने आपको भगवान के हाथों में सौंप दो| कोई शर्त मत रखो, कोई चीज़ मत मांगो, यहाँ तक कि योग में सिद्धि भी मत मांगो|
जो लोग भगवान से कुछ मांगते हैं, उन्हें वे वही चीज़ देते हैं जो वे मांगते हैं|
परन्तु जो अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं मांगते उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं|
.
भगवान का शाश्वत वचन है -- "मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि|"
यानी अपने आपको ह्रदय और मन से मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर जाएगा|
"सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज | अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः|"
समस्त धर्मों (सभी सिद्धांतों, नियमों व हर तरह के साधन विधानों का) परित्याग कर और एकमात्र मेरी शरण में आजा ; मैं तुम्हें समस्त पापों और दोषों से मुक्त कार दूंगा --- शोक मत कर|
.
हमारे से कहीं अधिक शक्तिशाली सत्ता इस कार्य में लगी हुई है| फिर भी अपने प्रयास में बराबर लगे रहो|
श्री अरविन्द के शब्दों में -- कर्म तो शक्तिशाली भगवान, स्वयं काली ही करती हैं और उसे यज्ञ रूप में श्रीकृष्ण को अर्पित करती हैं ; तुम तो केवल उस यजमान की तरह हो जो यज्ञ को संपन्न होते हुए देखता है ; जिसकी उपस्थिति यज्ञ की प्रत्येक क्रिया के लिये आवश्यक है और जो उसके फलों का रसास्वादन करता है|
न केवल कर्ताभाव, कर्मफल आदि बल्कि कर्म तक को उन्हें समर्पित कर दो| साक्षीभाव या दृष्टाभाव तक उन्हें समर्पित कर दो| साध्य भी वे ही हैं, साधक भी वे ही हैं और साधना भी वे ही है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
January 02, 2013.
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जो भी साधना हम करते हैं वह हमारे लिये नहीं अपितु भगवान के लिये है|
उसका उद्देश्य व्यक्तिगत मुक्ति नहीं है|
साधना का उद्देश्य है ---- "आत्म समर्पण|"
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अपने समूचे ह्रदय और शक्ति के साथ अपने आपको भगवान के हाथों में सौंप दो| कोई शर्त मत रखो, कोई चीज़ मत मांगो, यहाँ तक कि योग में सिद्धि भी मत मांगो|
जो लोग भगवान से कुछ मांगते हैं, उन्हें वे वही चीज़ देते हैं जो वे मांगते हैं|
परन्तु जो अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं मांगते उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं|
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भगवान का शाश्वत वचन है -- "मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि|"
यानी अपने आपको ह्रदय और मन से मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर जाएगा|
"सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज | अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः|"
समस्त धर्मों (सभी सिद्धांतों, नियमों व हर तरह के साधन विधानों का) परित्याग कर और एकमात्र मेरी शरण में आजा ; मैं तुम्हें समस्त पापों और दोषों से मुक्त कार दूंगा --- शोक मत कर|
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हमारे से कहीं अधिक शक्तिशाली सत्ता इस कार्य में लगी हुई है| फिर भी अपने प्रयास में बराबर लगे रहो|
श्री अरविन्द के शब्दों में -- कर्म तो शक्तिशाली भगवान, स्वयं काली ही करती हैं और उसे यज्ञ रूप में श्रीकृष्ण को अर्पित करती हैं ; तुम तो केवल उस यजमान की तरह हो जो यज्ञ को संपन्न होते हुए देखता है ; जिसकी उपस्थिति यज्ञ की प्रत्येक क्रिया के लिये आवश्यक है और जो उसके फलों का रसास्वादन करता है|
न केवल कर्ताभाव, कर्मफल आदि बल्कि कर्म तक को उन्हें समर्पित कर दो| साक्षीभाव या दृष्टाभाव तक उन्हें समर्पित कर दो| साध्य भी वे ही हैं, साधक भी वे ही हैं और साधना भी वे ही है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
January 02, 2013.
ईश्वर के ध्यान में बिताया समय ही सार्थक है बाकी तो मरुभूमि में जल की एक बूँद है |
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