शैवागम दर्शन के मूल वक्ता हैं स्वयं पशुपति भगवान शिव|
इसके श्रोता थे ऋषि दुर्वासा| शैवागम दर्शन के आचार्य भी दुर्वाषा ऋषि ही हैं|
इस दर्शन के अनुसार पदार्थ के तीन भेद होते हैं ----- पशु, पाश और पशुपति|
यह बहुत गहन दर्शन है इसलिय विस्तार भय से इसकी गहराई में न जाकर इसका परिचय मात्र यहाँ दे रहा हूँ|
जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु है| पाशनाच्च पशवः| जीवात्मा अर्थात क्षेत्रज्ञ को ही पशु कहते हैं जो जन्म से नाना प्रकार के पाशों यानि बंधनों में बंधा रहता है| जब तक जीव सब प्रकार के पाशों यानि बंधनों से मुक्त न होकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, वह पशु ही है|
पाश शब्द का और पशुपति का अर्थ भी यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसे सब समझते है|
पशुपति सर्व समर्थ, नित्य, निर्गुण, सर्वव्यापी, स्वतंत्र, सर्वज्ञ, ऐश्वर्यस्वरुप, नित्यमुक्त, नित्यनिर्मल, अपार ज्ञान शक्ति के अधिकारी, क्रियाशक्तिसम्पन्न, परम दयावान शिव महेश्वर हैं|
शिवस्वरूप परमात्मा ही पशुपति के नाम से जाने जाते हैं| सृष्टि, स्थिति, विनाश, तिरोधान और अनुग्रह इनके पांच कर्म हैं|
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विद्या, क्रिया, योग और चर्या (आचरण) ये चार प्रकार की साधनाएँ हैं| शिष्य के देह में जो आध्यात्मिक चक्र हैं उन पर जन्म-जन्मान्तर के कर्मफल वज्रलेप की तरह चिपके हुए हैं| इस लिए जीव को शिव का बोध नहीं होता| गुरु शिष्य के चित्त में प्रवेश कर के उस आवरण को गला देते हैं| जब शिष्य के अंतर में दिव्य चेतना स्फुरित होती है तब वह साक्षात शिव भाव को प्राप्त होता है|
गुरु की चैतन्य शक्ति के बिना यह संभव नहीं है|
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उत्पलाचार्य प्रणीत "ईश्वरप्रत्यभिज्ञा", और लक्ष्मणाचार्य प्रणीत "शारदातिलक" ग्रन्थ, शैव साधना के प्रामाणिक ग्रन्थ हैं|
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शिष्य चाहे कितना भी पतित हो, सद्गुरु उसे ढूंढ निकालते हैं| फिर चेला जब तक अपनी सही स्थिति में नहीं आता, गुरु को चैन नहीं मिलता है| इसी को दया कहते हैं| यही गुरु रूप में शिवकृपा है|
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कश्मीर की महान शैव परंपरा के भी अनेक महान ग्रन्थ हैं| ये सब पहले नेपाल के राज दरबार में सुरक्षित थे| अब पता नहीं उनकी क्या स्थिति है| जिस प्रकार दुर्वासा ऋषि समस्त शैवागमों के आचार्य हैं, वैसे ही अगस्त्य ऋषि शाक्तागमों के प्रवर्तक | बिना राज्य के सहयोग के प्राचीन ग्रन्थों का संरक्षण अति कठिन है| भगवान शिव से प्रार्थना है की वे सब जीवों पर कृपा करें और अपना बोध सब को कराएं|
शिवमस्तु| ॐ तत्सत| ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !
कृपाशंकर
इसके श्रोता थे ऋषि दुर्वासा| शैवागम दर्शन के आचार्य भी दुर्वाषा ऋषि ही हैं|
इस दर्शन के अनुसार पदार्थ के तीन भेद होते हैं ----- पशु, पाश और पशुपति|
यह बहुत गहन दर्शन है इसलिय विस्तार भय से इसकी गहराई में न जाकर इसका परिचय मात्र यहाँ दे रहा हूँ|
जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु है| पाशनाच्च पशवः| जीवात्मा अर्थात क्षेत्रज्ञ को ही पशु कहते हैं जो जन्म से नाना प्रकार के पाशों यानि बंधनों में बंधा रहता है| जब तक जीव सब प्रकार के पाशों यानि बंधनों से मुक्त न होकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, वह पशु ही है|
पाश शब्द का और पशुपति का अर्थ भी यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसे सब समझते है|
पशुपति सर्व समर्थ, नित्य, निर्गुण, सर्वव्यापी, स्वतंत्र, सर्वज्ञ, ऐश्वर्यस्वरुप, नित्यमुक्त, नित्यनिर्मल, अपार ज्ञान शक्ति के अधिकारी, क्रियाशक्तिसम्पन्न, परम दयावान शिव महेश्वर हैं|
शिवस्वरूप परमात्मा ही पशुपति के नाम से जाने जाते हैं| सृष्टि, स्थिति, विनाश, तिरोधान और अनुग्रह इनके पांच कर्म हैं|
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विद्या, क्रिया, योग और चर्या (आचरण) ये चार प्रकार की साधनाएँ हैं| शिष्य के देह में जो आध्यात्मिक चक्र हैं उन पर जन्म-जन्मान्तर के कर्मफल वज्रलेप की तरह चिपके हुए हैं| इस लिए जीव को शिव का बोध नहीं होता| गुरु शिष्य के चित्त में प्रवेश कर के उस आवरण को गला देते हैं| जब शिष्य के अंतर में दिव्य चेतना स्फुरित होती है तब वह साक्षात शिव भाव को प्राप्त होता है|
गुरु की चैतन्य शक्ति के बिना यह संभव नहीं है|
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उत्पलाचार्य प्रणीत "ईश्वरप्रत्यभिज्ञा", और लक्ष्मणाचार्य प्रणीत "शारदातिलक" ग्रन्थ, शैव साधना के प्रामाणिक ग्रन्थ हैं|
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शिष्य चाहे कितना भी पतित हो, सद्गुरु उसे ढूंढ निकालते हैं| फिर चेला जब तक अपनी सही स्थिति में नहीं आता, गुरु को चैन नहीं मिलता है| इसी को दया कहते हैं| यही गुरु रूप में शिवकृपा है|
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कश्मीर की महान शैव परंपरा के भी अनेक महान ग्रन्थ हैं| ये सब पहले नेपाल के राज दरबार में सुरक्षित थे| अब पता नहीं उनकी क्या स्थिति है| जिस प्रकार दुर्वासा ऋषि समस्त शैवागमों के आचार्य हैं, वैसे ही अगस्त्य ऋषि शाक्तागमों के प्रवर्तक | बिना राज्य के सहयोग के प्राचीन ग्रन्थों का संरक्षण अति कठिन है| भगवान शिव से प्रार्थना है की वे सब जीवों पर कृपा करें और अपना बोध सब को कराएं|
शिवमस्तु| ॐ तत्सत| ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !
कृपाशंकर
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