Thursday 23 June 2016

यथा ब्रज गोपिकानाम् ....

"यथा ब्रज गोपिकानाम्"
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कभी कभी ईश्वर से विछोह भी अच्छा है क्योंकि उसमें मिलने का आनंद समाया होता है| मिलने में वियोग की पीड़ा भी होती है|
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वह स्थिति सब से अच्छी है जहाँ ना कोई मिलना है और ना कोई विछुड़ना| क्योंकि की जो मिलता और विछुड़ता है वह तो आप स्वयं ही हो| आपसे पृथक कुछ है ही नहीं|
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कभी जब आप एक अति उत्तुंग पर्वत के शिखर से नीचे की गहराई में झांकते हो तो वह डरावनी गहराई भी आपमें झाँकती है| ऐसे ही जब आप नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हो तो वह पर्वत भी आपको घूरता है| जिसकी आँखों में आप देखते हो वे आँखें भी आपको देखती हैं| जिससे भी आप प्रेम या घृणा करते हो उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर आपको ही प्राप्त होती है|
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वैसे ही जब आप प्रभु को प्रेम करते हो तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर आपको ही प्राप्त होता है| वह प्रेम आप स्वयं ही हो| प्रभु में आप समर्पण करते हो तो प्रभु भी आपमें समर्पण करते हैं| जब आप उनके शिवत्व में विलीन हो जाते हो तो आप में भी वह शिवत्व विलीन हो जाता है और आप स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हो| जहाँ ना कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, ना कोई मिलना-बिछुड़ना, जहाँ कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता आप स्वयं ही हो|
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आपका पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है|
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ॐ शिव | शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||

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