Monday 19 December 2016

आत्म सूर्य .....

आत्म सूर्य .....
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एक सूर्य और है वह है आत्म सूर्य जिसके दर्शन योगियों को कूटस्थ में होते हैं|
उस कूटस्थ सूर्य में योगी अपने समस्त अस्तित्व को विलीन कर देता है| उस सूर्य को ज्योतिर्मय ब्रह्म भी कह सकते हैं|

पहिले एक स्वर्णिम आभा के दर्शन होते हैं फिर उसके मध्य में एक नीला प्रकाश फिर उस नीले प्रकाश में एक श्वेत पंचकोणीय नक्षत्र जिस पर योगी ध्यान करते हैं| उस पंचकोणीय नक्षत्र का भेदन करने पर योगी की चेतना परमात्मा के साथ एक हो जाती है| उसका कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता|

पंचमुखी महादेव उसी पंचकोणीय नक्षत्र के प्रतीक हैं| यह योग मार्ग की सबसे बड़ी साधना है| यह श्वेत ज्योति ही कूटस्थ ब्रह्म है|
आरम्भ में योगी अजपा जाप द्वारा कूटस्थ पर ध्यान करते हैं फिर वहीं अनहद प्रणव सुनता है जिसका ध्यान करते करते सुक्ष्म देह्स्थ मेरुदंड के चक्र जागृत होने लगते हैं| सुषुम्ना में प्राण तत्व की अनुभूति होती है और शीतल (सोम) व उष्ण (अग्नि) धाराओं के रूप में ऊर्जा मूलाधार से मेरुशीर्ष व आज्ञाचक्र के मध्य प्रवाहित होने लगती है|
सुषुम्ना में भी तीन उप नाड़ियाँ -- चित्रा, वज्रा और ब्राह्मी हैं जो अलग अलग अनुभूतियाँ देती हैं|
गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भेदन होकर सहस्त्रार में प्रवेश होता है| गुरू प्रदत्त कुछ बीजमंत्रों के साथ इस ऊर्जा का सुषुम्ना में सचेतन प्रवाह होने लगता है जिसका उद्देश्य समस्त चक्रों की चेतना का कूटस्थ में विलय है|

सबसे बड़ी शक्ति जो आपको ईश्वर की और ले जा सकती है वह है -- अहैतुकी परम प्रेम| उस प्रेम के जागृत होने पर साधक को स्वयं परमात्मा से ही मार्गदर्शन मिलने लगता है| वह अहैतुकी परम प्रेम आप सब में जागृत हो|
ओम् तत् सत्|
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